- पंकज दीक्षित
स्थानीय संपादक दैनिक दबंग दुनिया इंदौर
भाजपा का समरसता अभियान सालभर चलने वाला है, लेकिन जिस तरह से सिंहस्थ में इसके स्वरूप में परिवर्तन करने की कोशिश अमित शाह ने की उससे भविष्य में आने वाले परिवर्तन की तस्वीर सहज ही खींची जा सकती है। समरसता यानी समान रस या समान भाव। जो असमानता, अंतरकलह और पक्षपात हमारे देश में दलित भोगते आए हैं उसे दूर करने के लिए वाकई एक चरणबद्ध योजना पर ईमानदारी से काम करने की जरूरत तो है। भाजपा ने समरसता पर सालभर चलने वाले इस अभियान की शुरुआत की तो एक सकारात्मक सोच दिखाई दी, लेकिन जिस बेहयाई से सिंहस्थ में समरसता के नाम पर दलितों को रिझाने का प्रयास दृष्टिगोचर हुआ उससे ऐसा लगता है कि यह शब्द कहीं अपनी सार्थकता न खो दे। ये सच है कि राजनीति में बेहतरीन शब्दों और भावनाओं का उपयोग सिर्फ और सिर्फ साधनों की तरह ही होता आया है साध्य तो एकमात्र वोट बैंक ही होता है, हालांकि यह भी बुरा नहीं है यदि इस पर ईमानदारी से अमल किया जाए।
महाकुंभ में भाजपा अध्यक्ष की ओर से जिस तरह ये सूचना प्रेषित की गई कि वे दलितों संतों के साथ स्नान करेंगे, उससे जाहिर था कि शाह खुलकर ये जताने में लगे हैं कि भाजपा दलितों की हितैषी है और इसके लिए वह किसी भी नैतिकता या नियम के खिलाफ जाने में गुरेज नहीं करेगी। लेकिन पासा तब उलटा पड़ गया जब अखाड़ों के प्रमुख संतों ने इसका विरोध जता दिया। उसके बाद भी कार्यक्रम में इतना भर अंतर किया गया कि दलित संत के अलावा अन्य संतों को भी शामिल कर लिया गया बाकी सब कुछ तो वही रहा, वाल्मीकि घाट भी, दलित संत भी और उनके साथ -शाह का भोज भी। खास बात यह है कि संघ और भाजपा का एजेंडा एक ही है और वह है केंद्र में पूर्ण बहुमत के बाद जब आज सत्ता हाथ में है तो बहुत ही आक्रामक अंदाज में उन कामों को अंजाम देना जो आगे का मार्ग न सिर्फ मजबूत करे बल्कि ये एक सकारात्मक संदेश भी दे। लेकिन शाह उसे अमलीजामा पहनाने में कई मायनों में चूक करते रहे हैं और शायद उसकी वजह है दिल्ली और बिहार में उनके नेतृत्व में हुई करारी हार। आज अमित शाह की मनोस्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। दो असफलताओं के बाद भी हालांकि संगठन ने कहीं भी यह जताने में कमी नहीं की है कि शाह पर विश्वास कायम है, बल्कि समय-समय पर यह संदेश ही दिया है कि आज भी शाह की नेतृत्व क्षमता वही है जिसका डंका उन्होंने उत्तरप्रदेश के लोकसभा चुनाव में 80 मे से 71 सीट जिताकर बजाया था।
बावजूद इसके शाह पर आया मनोवैज्ञानिक दबाव समझा जा सकता है। 2017 में होने वाले उत्तरप्रदेश के चुनाव की जिम्मेदारी शाह पर है और इस बार अग्निपरीक्षा है, शायद यही बात उन्हें कुछ असंयत करने पर मजबूर कर रही है और आगे भी करेगी। अमित शाह ये बात अच्छी तरह समझते हैं कि जातिगत समीकरण में मायावती उनसे ज्यादा सिद्धहस्थ हैं और गुजरात मॉडल पूरी तरह से उत्तरप्रदेश पर उस तरह से कारगर नहीं है। महाकुंभ में समरसता स्नान का हथकंडा पूरी तरह कारगर नहीं रहा, लेकिन यूपी के 2017 में होने वाले चुनाव पर शाह की रणनीति क्या रहने वाली है इसका पता तो देता ही है।
सिंहस्थ में समरसता के बहाने दलित वर्ग के संतों के साथ स्नान का निर्णय भी इसी तरह का था जिसमें वे भूल गए कि इस तरह वे दलितों को अलग-थलग रखने की परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं। आरक्षण से लेकर राजनीति तक दलितों को सम्मान देने और मुख्यधारा में लाने की बात की जाती रही है, लेकिन सच तो यह है कि इन्हीं प्रयत्नों पर उन्हें हमेशा अलग बनाए रखने का दोष भी जाता है। महाकुंभ में सत्ता के एक अति जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा दलितों के साथ वाल्मीकि घाट पर स्नान करने का एक ही तो मतलब निकलता है कि समाज में उन्हें आज भी अलग तरह से लिया जाता है। प्रश्न यह है कि अलग क्यों, साथ क्यों नहीं? इस तरह से तो उनकी जाति की बात की जा रही है तभी तो एक संत ने कहा कि क्या अब आप साधुओं से उनकी जाति पूछेंगे -शायद इसी परिपे्रक्ष्य में कि ‘जात न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान...’।
दरअसल उत्तरप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव का डर -शाह के सर चढ़कर कर बोल रहा है, क्योंकि एक तो पिछले लोकसभा चुनाव की तरह इस बार मोदी इम्पैक्ट उतना नहीं है दूसरा दो साल में भाजपा के ऐसे काम भी सामने नहीं आए हंै जो यह तय कर सकें आज भी वोटर भाजपा को उसी तरह लेंगे जैसा विधानसभा चुनाव के वक्त लिया था। समरसता का सही अर्थ तब ही सामने आएगा जब समाज से ज्यादा दलितों के मन से स्वयं की हिकारत का भाव कम होगा और यह तभी होगा जब इस समाज के किसी भी वर्ग को उसके आर्थिक, सामाजिक और रंगरूप के आधार पर देखना बंद किया जाएगा और यह होगा शिक्षा और समरसता जैसे गहरे, गंभीर प्रयासों से, न कि उनके सतही और असंयत प्रदर्शन से।