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उत्तराखंड में खंड-खंड होती मर्यादा

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 10 2016 11:13AM | Updated Date: May 10 2016 11:13AM
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-अश्विनी कुमार
-लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।


उत्तराखंड में जिस प्रकार लोकतंत्र के साथ प्रयोग पर प्रयोग हो रहा है उसका एक नतीजा साफ सामने दिखाई पड़ रहा है कि विधायिका स्वयं ही अपना मजाक बना रही है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा कि देश के सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में किसी विधानसभा में सत्ता और विपक्ष के बीच शक्ति परीक्षण होगा। इसमें सबसे बड़ी पराजय विधायिका की हो चुकी है क्योंकि इसकी स्वायत्त और संप्रभु छवि न्यायपालिका की ताबेदार बन गई है। यह कोई मामूली प्रश्न नहीं है क्योंकि इसमें प्रत्यक्षत: जनता द्वारा चुनी हुई विधानसभा की संविधानत: चलने वाली प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगा है लेकिन यह स्थिति आई क्यों? इसका उत्तर भी बहुत सीधा और सादा है कि इसी संप्रभु सदन के सदस्यों ने अपनी हैसियत बाजार में बिकने वाले माल की तरह बना डाली। सत्ता के लोभ ने पूरी विधायिका को बाजार में तब्दील कर डाला।
लोकनीति और सांविधानिक मयार्दा तथा राजनीति भी कहती थी कि विगत 18 मार्च को जब कांग्रेस की सरकार के मुखिया हरीश रावत का विनियोग विधेयक संवैधानिक मानकों को धत्ता बताते हुए पारित किया गया था और सरकार में शामिल मंत्री समेत कुल नौ विधायकों ने रावत सरकार के खिलाफ ध्वनिमत से पारित विधेयक के विरुद्ध मत देने का ऐलान करते हुए इसकी सूचना राज्यपाल महोदय को दी थी तो तभी श्री रावत को अपना इस्तीफा राज्यपाल श्री के.के. पाल को सौंप कर ऐलान कर देना चाहिए था कि कांग्रेस के बागी विधायकों के साथ वह व्यवहार किया जाना चाहिए जो संविधान कहता है। संसदीय लोकतंत्र में ऐसे नजारे पेश आते रहते हैं। मुझे 1979 का वह मंजर अभी तक भूला नहीं है जब लोकसभा में समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीस तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार के समर्थन में लंबा-चौड़ा भाषण करके आये थे और संसद से बाहर आते ही इसके मुख्य द्वार पर मौजूद पत्रकारों के सामने उन्होंने कह दिया था कि वह मोरारजी सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं और स्व. चौधरी चरण सिंह के साथ हैं जिन्होंने सत्तारूढ़ जनता पार्टी से अलग होने का ऐलान कर दिया था। मोरारजी भाई देसाई ने तभी प्रधानमंत्री पद से अपना इस्तीफा देने का फैसला कर लिया था। बेशक उस समय दल-बदल कानून नहीं था मगर विधायिका के भीतर की मयार्दा तो वही थी जो आज है।

जिन नौ विधायकों ने 18 मार्च को विधानसभा के भीतर रावत सरकार की मुखालफत की थी उन्होंने तब दल-बदल कानून का उल्लंघन भी नहीं किया था क्योंकि इस विधेयक पर कांग्रेस पार्टी द्वारा कोई सचेतना (व्हिप) जारी नहीं किया गया था। यदि श्री रावत उसी क्षण अपने पद से इस्तीफा देकर अपनी पार्टी की हाईकमान के समक्ष पूरे मामले को रख कर नौ बागी विधायकों के संबंध में अपनी फरियाद रखते तो आज उत्तराखंड की अस्मिता इस प्रकार खंड-खंड न होती मगर क्या फजीहत कराई  रावत ने कि विधानसभा अध्यक्ष की नेकनीयती और न्यायप्रियता को भी दांव पर लगा दिया और स्वयं सत्ता के बाजार में एक बड़े व्यापारी बन कर उभर गए। इससे ज्यादा विधायिका का अपमान और क्या होगा कि उनके बारे में दो स्टिंग फिल्में सार्वजनिक हो गईं जिसमें वह अपनी सरकार बचाने के लिए विधायकों के खरीदारी के दाम तय कर रहे थे परंतु कल जारी स्टिंग वीडियो में तो कमाल हो गया कि कांग्रेस के 12 विधायकों को अपने पक्ष में रखने के लिए प्रत्येक को 25-25 लाख रुपए पकड़ा दिए गए।

सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में ही 10 मई को शक्ति परीक्षण होना तय है। इस परीक्षण की पवित्रता स्टिंग वीडियो के बाहर आ जाने के बाद क्या रह गई है? यह सोचने का विषय न्यायालय का है क्योंकि इस परीक्षण से पहले ही रिश्वत देने की बात उजागर हो गई है मगर एक तथ्य स्पष्ट हो चुका है कि  रावत को 18 मार्च से पहले ही यह आभास हो गया था कि उनकी अपनी पार्टी के भीतर उनके विरुद्ध विद्रोह पनप चुका है। न्यायालय के बीच में आने के बाद और नैनीताल उच्च न्यायालय से पूरा मामला नई दिल्ली के सर्वोच्च न्यायालय में आने के बाद भी यह स्पष्ट हो चुका है कि  रावत को अपने साथ बचे-खुचे कांग्रेसी विधायकों पर भी यकीन नहीं है तभी उन्होंने 12 विधायकों को 25-25 लाख रुपए की रिश्वत दी। अत: 10 मई को होने वाले शक्ति परीक्षण की शुचिता पर तो 8 मई को ही सवालिया निशान लग गया है। सत्ता का लोभ किस प्रकार राजनीतिक दूरदर्शिता को चाट जाता है उसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तराखंड है। जब श्री रावत स्वयं अपना घर संभालने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे और अपने साथ विधायकों को रखने के लिए लोभ और लालच का सहारा ले रहे थे तो राजनीति विज्ञान यही कहता है कि उन्हें अपने सिर के बोझ को तुरंत विपक्षी दल भाजपा के सिर पर डाल देना चाहिए था और वह राज्यपाल को इस्तीफा सौंप कर विधानसभा भंग तक करने की सिफारिश भी कर सकते थे मगर उन्हें तो लग रहा था कि सत्ता गई तो न जाने कब फिर नसीब होगी। इसलिए कहां का लोकतंत्र और कैसी विधायिका की पवित्रता।

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