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Gagar Men Sagar

क्या यह भारतीय स्वाभिमान पर चोट है

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 5 2016 10:04AM | Updated Date: May 5 2016 10:04AM
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- अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।


इटली के नौसैनिकों द्वारा 2012 में केरल के निकट अरब सागर की भारतीय सीमा में दो भारतीय मछुआरों की हत्या किया जाना कोई सामान्य घटना नहीं थी अपितु भारत की प्रभुसत्ता पर दो विदेशी नागरिकों द्वारा खुले आम किया गया आक्रमण था, परंतु यह बहुत ही अफसोसजनक है कि तत्कालीन केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा इस पर अत्यंत ही लापरवाही भरा रवैया अपनाया गया। इटली की सरकार द्वारा घटना के पहले दिन से ही जिस प्रकार अपने नागरिकों की सुरक्षा के प्रयास किए गए उसकी तुलना भारत सरकार द्वारा मारे गए गरीब मछुआरों के परिवारों को न्याय दिलाने की कार्यवाही से की जाए तो मन में क्षोभ उत्पन्न तो होता ही है। पूरे विश्व में एक संदेश तो यह गया है कि भारत को अपने नागरिकों की जान की परवाह नहीं। मछुआरों की हत्या भी हमारे शासकों के स्वाभिमान को न जगा सकी तो फिर समझ लीजिए कि राष्ट्र निद्रा में ही है। दोनों मछुआरे भारत माता के पुत्र थे, जिनको बिना किसी कारण गोलियों से छलनी कर दिया गया लेकिन हत्यारों से पूर्ववर्ती सरकार ने जिस तरह से सद्व्यहार किया उससे हमारी कूटनीतिक नाकामी ही सामने आई है। अब हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के ट्रिब्यूनल ने भारत में पकड़े गए एक इतालवी नौसैनिक को मुकदमे की कार्यवाई पूरी होने तक स्वदेश भेजने का आदेश दिया है।

यह फैसला भारत के लिए बड़ा झटका है। यद्यपि भारत सरकार का कहना है कि इटली ट्रिब्यूनल के आदेश की गलत व्याख्या कर रहा है। इतालवी नौसैनिक की जमानत का आधार सुप्रीम कोर्ट तय करेगा। इस मामले में एक इतालवी नौसैनिक मैसिमिलियानो लातौर को स्वास्थ्य कारणों से पहले ही इटली भेज दिया गया था, लेकिन भारत ने दूसरे नौसैनिक को भेजने से इनकार कर दिया था। इटली का कहना है कि यह घटना अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा में हुई थी, इसलिए भारत को उन पर मुकदमा चलाने का अधिकार ही नहीं है। भारतीयों को याद होगा कि हत्यारे दोनों नौसैनिकों की केरल सरकार ने बहुत आवभगत की थी। अगर केरल के नागरिकों ने तीव्र विरोध कर राज्य सरकार को विवश नहीं किया होता तो शायद हत्यारे उसी दिन वापस लौट गए होते। दुनिया भर में आपराधिक न्याय के इतिहास में यह पहला मौका था जब सर्वोच्च न्यायालय ने किसी अपराधी को सजा के बीच घर जाकर त्यौहार मनाने की अनुमति प्रदान की और सरकार ने भी कोई आपत्ति या विरोध प्रकट नहीं किया। जब दोबारा उन नौसैनिकों को इटली के आम चुनावों में वोट डालने के लिए स्वदेश भेजा गया तो इटली सरकार ने यह कहकर कि भारत के न्यायालय को उन पर मुकदमा चलाने का कोई अधिकार ही नहीं, उन नाविकों को वापस भेजने से इनकार कर दिया था। इस मसले पर इटली और भारत के रिश्ते तनावपूर्ण हो गए थे। उसके बाद भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने इटली के राजदूत डेनियल मंचिनी को भारत न छोड़ने का आदेश दिया था। जब इतालवी राजदूत ने दलील दी थी कि वियना कन्वेंशन के तहत उनके खिलाफ राजनयिक तौर पर कोई कदम उठाया ही नहीं जा सकता। तब भारत ने इटली को आश्वासन दिया था कि दोनों नौसैनिकों के साथ अच्छा सलूक किया जाएगा और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाएगी तब जाकर दोनों नौसैनिक मुकदमे का सामना करने के लिए भारत वापस लौटे थे। फिर इटली ने संयुक्त राष्ट्र का रुख किया।

क्या किसी भारतीय विचाराधीन कैदी को वोट डालने या दीवाली मनाने के लिए पैरोल पर रिहा किया जाता है? अगर नहीं तो इतालवी मरीन सैनिकों को खास रियायतें क्यों दी गईं। हैरानी की बात यह है कि इटली सरकार की अर्जी पर दोनों नौसैनिकों को केरल में नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में दिल्ली में रहने की इजाजत दे दी। भारत सरकार ने इस पर भी कोई आपत्ति नहीं की। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट की इजाजत से दोनों जमानत पर रिहा होकर दिल्ली में इटली दूतावास में रहने लगे। इनमें से एक को वापस इटली भेजा गया जबकि सल्वातोरे गिरोने अभी भी भारत में है। यह समूचा घटनाक्रम यह प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि किस प्रकार कुछ लोगों को खुश करने के लिए इटली के नागरिकों को शाही सम्मान दिया गया। क्या यह सब कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के मातृभूमि प्रेम के कारण किया गया? यह सवाल अब भी भारतीयों को कचोटता है। क्या उनका राष्ट्र प्रेम सर्वोपरि है, भारत का स्वाभिमान कुछ भी नहीं। पूरा मामला ही मजाक बनकर रह गया है। बोफोर्स हो या हेलीकॉप्टर दलाली या निर्दोष मछुआरों की हत्या, इटली से संबंधित मामले में पूर्ववर्ती सरकार की निष्क्रियता के ही सबूत हैं। इतिहास देखें तो इटली कभी भारत का सहयोगी देश नहीं रहा। इटली वही देश है जो आज तक संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भारत का विरोध करता आ रहा है। भारत की विदेश नीति को किसी के हाथ का औजार नहीं बनने देना चाहिए। अब देखना है कि मोदी सरकार इस मामले से कैसे निपटती है। हालांकि उसके सामने भी विकल्प कम ही बचे हैं।

 

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