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संख्या बढ़ाने से ही हल नहीं होगी समस्या

By Dabangdunia News Service | Publish Date: May 4 2016 12:12PM | Updated Date: May 4 2016 12:12PM
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- अवधेश कुमार
विश्लेषक


उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश यदि भारत के न्याय ढांचे पर चर्चा करते हुए भावुक हो जाएं  या रो पड़े तो इससे स्थिति की गंभीरता का पता चलता है। वास्तव में न्यायाधीशों एवं मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने जो मुद्दे  उठाए हैं उनसे देश का ध्यान नए सिरे न्यायालयों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ एवं न्यायाधीशों व न्यायालयों की अति अपर्याप्त संख्या की तरफ गया है। न्यायमूर्ति ठाकुर ने प्राथमिक कक्षा में पढ़ाए जाने वाले गणित के प्रश्न का हवाला देते हुए बताया कि अगर 10 दिन में 5 आदमी मिलकर एक सड़क बनाते हैं तो एक दिन में उसे बनाने के लिए 50 आदमी चाहिए। इसके बाद उन्होंने पूछा कि 38 लाख 88 हजार मुकदमों के निपटारे के लिए कितने न्यायाधीश चाहिए। वास्तव में भारतीय न्याय व्यवस्था में विलंब एक आम बात है और यह न्याय में विलंब यानी न्याय का नकार वाली कहावत को चरितार्थ करता है।  इसका मूल कारण न्यायविद् न्यायालयों एवं न्यायाधीशों की कमी बताते हैं। दूसरे देशों से तुलना कर यह भी बताया जाता है कि न्यायाधीशों और न्यायलयों की संख्या में हम कितने पीछे हैं। अगर आंकड़ों को देखें तो न्यायमूर्ति ठाकुर की बात भयावह और दयनीय सच्चाई का आईना लगेगा तथा न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की मांग बिल्कुल उचित लगेगी।  कुल मिलाकर हमारे देश में तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं और इनकी सुनवाई कब पूरी होगीए फैसला कब सुनाया जाएगा इसके बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। जो पद पहले से स्वीकृत हैं उनके अनुसार भी 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 44 प्रतिशत पद खाली हैं। 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 1056 पद हैं जिनमें केवल 591 पर नियुक्तियां हुईं। यानी उच्च न्यायालयों में ही न्यायाधीशों के 465 पद खाली हैं। इसका असर साफ है। एक आंकड़े के अनुसार आम तौर पर उच्च यायालयों में न्यायाधीश 2 से 5 मिनट तक ही एक मामले की सुनवाई करते हैं। अगर उच्चतम न्यायालय को ही देखें तो 1951 में न्यायाधीशों की संख्या 8 थी जबकि मुकदमों की संख्या थी 1215। यानी उस समय एक न्यायाधीश के जिम्मे करीब 150 मुकदमे आते थे।

हर न्यायालय में वादियों प्रतिवादियों की भीड़ उनकी परेशानियां तथा न्याय में देरी से उनके अंदर पैदा होती खीझ देखी जा सकतीं हैं। किंतु कोई करे तो क्या ऐसे में न्यायाधीशोंं यानी न्यायालयों की संख्या बढ़ाने का ही रास्ता समझ में आ सकता है। विधि आयोग ने 2014 के अपने प्रतिवेदन में फिर से प्रति 10 लाख आबादी पर 50 न्यायाधीशों की नियुक्तियां करने की अनुशंसा करी है। इसके साथ उसने कुछ और सुझाए दिए। मसलन निचली अदालतों में न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की उम्र 60 से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दिया जाए मुदकमों की सुनवाई और फैसले की समय सीमा निश्चित हो न्यायालयों की कार्य अवधि में बढ़ोत्तरी की जाए ऐसे न्यायाधीश नियुक्त हों जो शाम को काम करें खासकर पुलिस द्वारा चालान और यातायात नियमों को तोड़ने वाले मुकदमों का निपटारा शाम को किया जाए इसके लिए विधि आयोग ने कानून के स्नातकों की अलग से नियुक्तियों का भी सुझाव दिया। आंकड़ा बताता है कि कुल मुकदमों में 37 प्रतिशत यातायात से संबंधित होते हैं। तो इसमें रास्ता निकाला जा सकता है। यानी वर्तमान न्यायपालिका के ढांचे में न्यायाधीशों और न्यायालयों की संख्या बढ़ाने के साथ कुछ और कदम भी उठाने की आवश्यकता है।  भाषण से यह ध्वनि निकल रही थी कि वे न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के पक्ष में हैं। कितना कर पाएंगे यह देखना होगा। उन्होंने अपने सुझावों में न्यायालयों की छुट्टियां कम करने तथा काम के घंटे बढ़ाने की भी बात की जिस पर न्यायमूर्ति ठाकुर की प्रतिक्रिया तीखी थी।  बहरहाल यह विचार करने की आवश्यकता है कि क्या वाकई न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने से त्वरित और सही न्याय की गारंटी हो जाएगी प्रति 10 लाख आबादी पर 50 न्यायाधीश का मतलब है इस समय की संख्या को सीधे तिगुना करना। जहां एक न्यायालय हैं वहां तीन हो जाएंगे। वास्तव में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने की कुछ आवश्यकता तो है पर इतनी बड़ी संख्या व्यावहारिक नहीं है और इससे समाधान भी नहीं है। समाधान तो इसमें है कि न्यायालय में मामले आए ही कम। हमारे देश में गांवों में पंचायती की परंपरा थी जिसमें दीवानी तथा बहुत हद तक अपराधों के मामले भी निपटा दिए जाते थे और समाज के दबाव में दोनों पक्ष मान लेता था। आज तो आपसी बंटवारे के लिए भी लोग न्यायालय ही जाते हैं। आपसी मारपीट हुई नहीं कि थाना और कचहरी। अगर पंचायत करने की परंपरा पुन: आरंभ हो और उन्हें वैधानिक ताकत दी जाए तो अपने आप न्यायालयों से बोझ घट जाएगा। आप देखेंगे कि 75 प्रतिशत से ज्यादा मामले बीच-बचाव से समाप्त हो सकता है। इस समय आपसी पंचायती के फैसले को कोई कानूनी मान्यता नहीं। तो समाधान लोगों को अपना न्याय करने की ताकत देने में है। यदि किसी को पंचायत का फैसला स्वीकार नहीं है तो वह न्यायालय में जाए। किंतु यदि परंपरागत ग्रामीण न्याय प्रणाली पर जोर दिया जाए तो आसानी से समस्या से निजात पाया जा सकता है। इससे लोगों को उनके घर पर ही त्वरित न्याय मिल जाएगा।

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