-राजकुमार ललवानी
समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।
यूं तो देश विदेशों में अनेक संत हुए जिन्होंने मानव सेवा में अपना जीवन समर्पित कर चोला छोड़ा। संत याने जो दूसरों के दुख का हरण करे। स्वयं कष्ट सहकार अवगुणी को सतगुणी बनाने का प्रयास करे, उसे सही शिक्षा प्रदान करे और वह स्वयं त्यागी व सतगुणों के मार्ग पर चलने वाला हो वही संत शिरोमणि कहलाता है। ऐसे ही सच्चे संत शिरोमणि स्वामी हरिकृष्णदास उदासी ने स्वयं सादगीभरा जीवन व्यतीत कर सभी को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। मानवता के पुजारी महान कर्मयोगी, संत शिरोमणि मार्गदर्शक, जीव दयालु, त्याग और तपस्या के साधक, समाज सुधारक, ईश्वर भक्त, युग दृष्टा स्वामी हरिकृष्णदास उदासी ने 3 मई 2011 को अपनी आत्मा को परमात्मा में विलीन किया। ऐसी महान विभूति हम सबसे छिन गई। एक सूनापन, एक अभाव आंखों को कष्ट देने लगा एवं क्षति प्रत्येक दृष्टि से अपूरणीय व मर्मबेधक सिद्ध हुई। व्यक्ति की दृष्टि से स्वामी हरिकृष्णदास एक उच्च कोटी के महापुरुष थे। उनका गांभीर्य समुद्र के समान, उनका वेग ज्वार-भाटे के समान और व्यक्तित्व स्निग्ध शीतल चांदनी के समान था। स्वामीजी ने समाज में व्याप्त बुराइयों के प्रति समाज को सावधान किया।
उनकी दृष्टि में दहेज प्रथा समाज के लिए अभिशाप है। दहेज क्यों? एक पराई लड़की आपके घर संसार को बसाने आई है, वह लक्ष्मी का रूप अपना भाग्य लेकर आई है। वह आपके बिखरे घर-संसार को संवारने आई है। आपके परिवार का वंश बढ़ाने आई है। ऐसी लक्ष्मी को यदि मान सम्मान देकर पूजा जाए तो वह आपके और आपके परिवार पर सदैव तन, मन से न्योछावर रहेगी। परिवार को सुव्यवस्थित रखने हेतु हर प्रकार का कष्ट सहेगी परंतु आप हैं कि थोड़े से लालच, थोड़े से धन जो वर्षों में नहीं महीनों में खर्च हो जाएगा, उस हेतु स्थायी लक्ष्मी को लताड़ रहे हैं। धिक्कार है उन पर जो दहेज लेते हैं।
बाबा हरिकृष्णदास सदैव कहते थे, संपत्ति से समय और सांसें नहीं खरीदी जा सकती है। क्रोध और जिद, सुख-संपत्ति और समय तीनों का नाश करती है। हम सब हवा के उस रुख की तरह हैं हमारी एक सांस अंदर की अंदर रह जाए या कब बाहर निकलकर चली जाए कहा नहीं जा सकता। अत: स्वयं का भी चित्त शांत रखें और दूसरों को अशांति कराने हेतु बाध्य न करें। कुदरत द्वारा भाग्य में लिखे फैसले नहीं वहां इनसान अपनी जिंदगी में न जीता है न मरता है। अपनी निश्चित आयु में केवल अपने कर्मों का कर्ज चुकाता है।
वस्तु खरीदकर उसका मूल्य किश्तों में चुकाने का अर्थ हुआ अपने भविष्य की कमाई गिरवी रख दी। बाबा के शब्दों में ‘शिक्षण संस्थाओं में सच्ची शिक्षा वहीं है जो विद्यार्थी-वर्ग में चरित्र का निर्माण करें’। अनुशासन की सीढ़ी पर चढ़कर ही युवक भावी नागरिक बन सकते हैं। ‘उनकी वाणी में जादू था, मिठास था, उनकी भाषा भावों की तरंगों के साथ प्रवाहित होने वाली थी। मानसिक तनाव से मुक्ति प्राप्त करने हेतु उनका परामर्श, औषधि का कार्य करता था। स्वामीजी हृदय से प्राचीनता के पुजारी, आधुनिकता के उपासक, दार्शनिक, मन से ईश्वर उपासक थे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे अपने शिष्यों, भक्तों, श्रद्धालुओं को आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन प्रदान करने में तत्पर रहे।
जनता उनका दर्शन कर अपने मन की प्यास पूरी करती थी। यद्यपि भौतिक दृष्टि से स्वामीजी हमारे मध्य नहीं है परंतु उनके आदर्श, प्रकाश स्तंभ बनकर, मानव जीवन का नैतिक उद्धार करते रहेंगे। त्याग और तपस्या से उनका जीवन ‘आदर्श से यथार्थ’ बन गया, ऐसे युगदृष्टा की पावन स्मृति में हार्दिक श्रद्धांजलि सादर समर्पित है। हम उनके उपदेशों के ऋणी हैं। उनका मत था ‘ईश्वर स्मरण एक प्रामाणिक औषधि है, जिससे शारीरिक औैर मानसिक क्लेशों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। निर्धनों की सेवा, जीवन दया ही ईश्वर स्मरण के मुख्य साधन है। उनका संपूर्ण जीवन सरल सादा और विनम्रता से परिपूर्ण था। ‘माता-पिता, मातृ-भाषा, मातृ-भूमि’ इन तीनों का कोई विकल्प नहीं। वे मर्यादा और ममता का आंचल थे। ‘माता-पिता’ के समान कोई पूज्य नहीं और गुरु के समान कोई देवता नहीं । सुख और दु:ख के लिए हमारे कर्म ही उत्तरदायी हैं। उक्त यथार्थ वाक्यांश से स्वामीजी ने जीवन की सत्यता को प्रकट कर, हमें सजग किया। स्वामीजी ने नियमित और निरंतर अपने आराध्य की आराधना में जीवन व्यतीत किया। स्वामी हरिनारायणदास के घर नओ-देरो सिंध (पाकिस्तान) में हरिकृष्ण का जन्म 1 जनवरी 1925 को हुआ था। उनके द्वारा रचित ‘हरि-दर्शन’ पुस्तक एक लघु पावन ग्रंथ है। आदर्श से यथार्थ तक जीवन सुखद पुण्य स्मरण की घड़ी में हम उनके काम, सद्गुणोें के प्रति अपने संकल्प दोहराते हैं।