25 Apr 2024, 05:02:02 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

- अवधेश कुमार
समसामयिक विषयों पर लिखते है।


यह खबर जैसे ही फैली कि नरेंद्र मोदी सरकार ने चीन के निर्वासित उइगर नेता डोल्कन ईसा तथा पाकिस्तान मूल की कनाडा वासी बलूच नेत्री नीला कादरी को भारत आने का वीजा दिया है पूरे देश में राष्ट्रवादी स्फुरण महसूस किया गया। भारत के हर विवेकशील नागरिक ने माना कि भारत ने कूटनीति में अपनी पुरानी हिचक को तोड़  जैसे को तैसा भाषा में चीन और पाकिस्तान दोनों को माकूल कूटनीतिक जवाब दिया है। चीन ने इसका जिस तरह तीखा विरोध किया था उससे लग रहा था कि उसको दिया गया जवाब ज्यादा कड़ा था। अब भारत द्वारा डोल्कन ईसा का वीजा रद्द करने से देश में ठीक इसके उलट प्रतिक्रिया है। दुनिया में भारत की छवि कैसी बनी यह अलग बात है, पर देश में तो तत्काल निराशा की स्थिति पैदा हुई है। लोगों की प्रतिक्रियाएं इतनी तीखीं है जिनका अनुमान शायद सरकार को नहीं रहा होगा। यह बिल्कुल स्वाभाविक है। आप पहले ही वीजा न देने का फैसला करते। जब वीजा दे दिया तो फिर उस पर अड़ते। चीन ने भारत के दबाव में तो मसूद अजहर मामले में नरमी नहीं दिखाई।

भारत के प्रस्ताव को वीटो किया और आज तक उसको सही ठहरा रहा है। इस परिप्रेक्ष्य मेंं लोगों का यह सवाल जायज लगता है कि जब चीन ने हमारी भावनाएं नहीं समझीं तो हम उसकी भावनाएं क्यों समझे?वास्तव में ऐसे कदमों से भारत की छवि दबाव में आने वाले देश की बनती है। एक ऐसे देश की, जो जितनी जल्दी निर्णय लेता है उतनी ही जल्दी बदलता भी है। इस समय भारत के अंदर भी यही प्रतिक्रिया है। यह तो साफ है कि भारत ने चीन के विरोध के बाद ही वीजा रद्द करने का फैसला किया। चीन डोल्कन ईसा को आतंकवादी कहता है। उस पर चीन ने अपने शिंजियांग प्रांत में आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने और लोगों की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया है। उसने ईसा के खिलाफ 1997 से इंटरपोल के रेड कॉर्नर नोटिस जारी करवाया हुआ है। चीन का मानना है कि उइगर नेता मुस्लिम बहुल शिंजियांग प्रांत में आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं। यह सब तथ्य है और इससे इनकार नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार का यह तर्क थोड़ी देर के लिए सही लग सकता है रेड कॉर्नर नोटिस के कारण भारत को उसे गिरफ्तार करना पड़ता जो यह नहीं चाहता था। इसलिए रास्ता एक ही था, वीजा रद्द कर दिया जाए। जरा दूसरा सच देखिए। भारत अच्छी तरह जानता है कि ईसा को 1990 से जर्मनी ने शरण दी हुई है। साफ है जर्मनी सहित पश्चिमी देश ईसा को आतंकवादी नहीं मानते। किसी ने उसे गिरफ्तार करने की आवश्यकता महसूस नहीं की तो फिर भारत को क्या पड़ी थी। जो व्यक्ति 1990 में देश छोड़ चुका हो और 26 वर्ष से जिसका हिंसा का कोई रिकॉर्ड नहीं हो उसे आप आतंकवादी कैसे ईसा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में 28 अप्रैल से 1 मई तक ‘सिटिजन पावर फॉर चाइना’ की ओर से आयोजित होने वाले सम्मेलन में शामिल होने आ रहे थे। हम जानते हैं कि ‘सिटिजन पावर फॉर चाइना’ के प्रमुख यांग जियानली हैं, जो 1989 में थियानमेन स्क्वेयर पर हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल थे तथा अमेरिका में निर्वासित जीवन जी रहे हैं। इस सम्मेलन को दलाई लामा भी संबोधित करने वाले हैं तथा उनसे ईसा की मुलाकात होनी थी। इससे चीन में शायद संयुक्त संघर्ष का कोई मोर्चा का आधार बन सकता था। दलाई लामा ही चीन की नजर में खटकते हैं और उनके लिए वह जैसी भाषा प्रयोग करता है उसे स्वीकार लें तो हमें दलाई लामा को भी अपने यहां नहीं रखना चाहिए। जब दलाई लामा भारत आए तो हम उन्हें एक शरणार्थी मानकर रख सकते थे, लेकिन तत्कालीन सरकार ने उन्हें राजकीय अतिथि का दर्जा दिया। उस समय तो भारत आज के इतना शक्तिशाली भी नहीं था। 1962 में पराजित होने के बावजूद भारत ने दलाई लामा और तिब्बत पर अपना रुख नहीं बदला। तो एक भारत की छवि यह है और दूसरी इस समय हमने ईसा के मामले में बना ली है। चीन विवाद के किसी मामले पर भारत के साथ नरमी बरतने या भारत की भावनाओं को महत्व देने को तैयार नहीं है। डोल्कन ईसा को वीजा एवं उइगर कांग्रेस के साथ संपर्क संबंध विस्तार से उसकी इस निश्चिंतता पर आघात पहुंचता। वर्ल्ड उइगर कांग्रेस चीन से बाहर रहने वाले उइगर समुदाय का समूह है। वे शिंजियांग को चीन का भाग नहीं मानते। ईसा और उनके जैसे अनेक नेता कहते हैं कि हम ईस्ट तुर्कमेनिस्तान के हिस्सा थे और भारत से हमारे संबंध ज्यादा गहरे हैं। ईसा का कहना है कि उइगर लोग भारत को प्यार करते हैं। जाहिर है, ऐसा करके हमने चीन को उसकी भाषा में जवाब देने तथा उसे दबाव में लाने का एक बेहतर अवसर खो दिया है। तिब्बती नेताओं ने भी कहा है कि डोल्कन ईसा एक सक्रियतावादी हैं, आतंकवादी नहीं। हमें तिब्बती नेताओं पर ज्यादा विश्वास करना चाहिए था। हालांकि ईसा ने कहा था कि चीन हमें वीजा देने से नाराज है और भारत को हमारी सुरक्षा की गारंटी तथा हमें स्वतंत्रत रूप से कहीं भी आने-आने की अनुमति देनी होगी। यह सामान्य सी मांग थी जिसे स्वीकार कर भारत भविष्य के लिए चीन को दबाव में लाने का एक आधार बना सकता था। इस अवसर से हम चूक गए हैं और इसके परिणाम घातक होंगे।

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