-वीना नागपाल
गर्मी की छुट्टियां और यात्राओं का मौसम एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। स्कूल के दिनों में तो पैरेंट्स एक दिन भी स्कूल मिस होने नहीं देते। एक या दो दिन की पढ़ाई का नागा होने का मतलब है कि पूरे हफ्ते भी इसकी भरपाई करते रहें। छुट्टियां होती हैं तो घूमने-फिरने और सफर पर निकल जाने का प्रोग्राम बना लिया जाता है। यहां संदर्भ के लिए बता दें कि पहले छुट्टियों का मतलब होता था कि पूरे महीना-महीना भर ननिहाल जाना और वहां आए अपने मामा-मामी तथा मौसी के बच्चों के साथ खूब धमा-चौकड़ी मचाना। कई बार दादा-दादी के घर भी अपने बड़े पापा या काका के बच्चों के साथ और बुआजी के बच्चों के साथ मिलकर हंगामा किया जाता। पर, अब ऐसे प्रोग्रोम नहीं बनते हैं। न जाने वालों को इसमें कोई रुचि रही है और न ही बुलाने वालों में कोई उत्साह बचा है। यंू भी फ्लैट संस्कृति के चलते कहां वह खुलापन और कहां इकट्ठे होकर शोर-शराबा करने का मजा बचा है।
अब तो छुट्टियों में सप्ताहभर के लिए कहीं जाने का प्रोग्राम बनता है और हर बार यह तय किया जाता है कि कोई नए व जाने-माने टूरिस्ट स्पॉट पर जाया जाए। बाद में लौटकर अपने परिचितों को यह भी तो बताना होता है कि कितनी महंगी अलीशान होटल में रुक कर उस पर्यटन स्थल का मजा लिया। उनके लिए पर्यटन स्थल सौंदर्य पर पंच सितारा होटल का महत्व अधिक होता है। पर, हैरानी की बात तो यह है कि सपरिवार जो इतने महंगे और संपन्नता से भरे सफरनामे अपने नाम दर्ज किए जाते हैं उसमें बच्चों और किशोरवय के लड़के-लड़कियों की कितनी रुचि होती है? वह उन प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर पर्यटन स्थल पर जाकर भी अपने मोबाइल या लैपटॉप में खोए रहते हैं। उन्हें समुद्र तटों की उतांग लहरें न तो चकित करती हैं और न ही उनके उठने और तट को छूकर लौट जाने में कोई संगीत सुनाई देता है। पहाड़ों की चोटियां और घाटियों की ओर उनकी नजर तक नहीं उठती। चीड़ और देवदार के लंबे-लंबे वृक्षों से गुजरकर आती हवा उन्हें स्पंदित नहीं करती। पेैरेंट्स द्वारा बुक किए गए मंहगे होटल के कमरों में ही वह बंद रहते हैं और अपनी अंगुलियों की हरकतों में ही खोए रहते हैं। उनका अपने कमरे की खिड़की खोलकर या यूं ही बाहर जाकर पर्यटन स्थल का सूर्योदय तथा सूर्यास्त देखने में कोई दिलचस्पी नहीं होती। जबकि यह पर्यटन स्थल प्राय: इसी प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाने व पहचाने जाते हैं। चाहे पहाड़ हों या समुद्र का तट सूरज अपना अलग-अलग सौंदर्य इसी प्रकार बिखरेता है। प्रकृति के इसके अतिरिक्त भी तो कितने रंग हैं तब इन बच्चों को अपने-अपने यंत्रों में इतनी रुचि क्यों होती जा रही है कि वह इनके सामने इन सुहावने दृश्यों को भी देखने में रुचि नहीं रखते।
यह कसूर उस माहौल का है, जिसमें चलकर बच्चे जी रहे हैं। वह प्रकृति के साथ पहचान ही नहीं बना पा रहे हैं दिन-रात स्कूल की पुस्तकों और उसके साथ-साथ अपने लैपटॉप और मोबाइल के साथ उलझे बच्चे कब पेड़ों, हरियाली और अन्य दृश्यों से परिचित होने का समय निकाल पाते हैं। उन्हें तो यह भी सोचने का समय नहीं मिलता कि सूर्योदय जब होता है तो उसका रंग कैसा होता है? यदि ऐसा ही रहा तो एक पूरी पीढ़ी प्रकृति के साथ सखा भाव नहीं बना पाएगी? इसके लिए यह बहुत जरूरी मान लें कि समय निकालकर सप्ताहांत में भी बच्चों को साथ लेकर आसपास के स्थानों पर जाएं। वहां प्रकृति को निहारें, उसे महसूस करें और पेड़ों व पत्तियों से बच्चों को परिचित करवाएं। उस समय न तो अपना मोबाइल अटैंड करें और न ही उसे बच्चों के हाथों में रहने दें।
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