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ताकि कायम रहे न्यायपालिका की गरिमा

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Apr 27 2016 11:58AM | Updated Date: Apr 27 2016 11:58AM
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-अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक है।


भारत में न्याय को एक देवी के रूप में चित्रित किया गया है, जिसकी दोनों आंखों पर काली पट्टी बंधी है और हाथ में तराजू है, जो सत्य और असत्य के दो पलड़ों का द्योतक है। आंखों पर पट्टी इसलिए है कि उसे बड़े-छोटे, शक्तिशाली, प्रभावशाली और कमजोर तथा गरीब से कोई मतलब नहीं। न्याय तो बस न्याय है। न्याय सस्ता और सहज सुलभ होना चाहिए। विलंब से मिलने वाला न्याय भी अन्याय के समान है। यदि न्याय करने वाला तंत्र ही अत्यधिक बोझ तले दबा हुआ होगा तो व्यवस्था चरमराएगी ही। भारत की न्यायपालिका इस आलोचना का लगातार शिकार बन रही है कि हजारों मुकदमे बिना फैसला लिए ही पड़े हैं और अनेक मामले तो कई वर्षों से लंबित हैं। मामूली मामलों में लोग जेलों में पड़े सड़ रहे हैैं। याचिकाकर्ता सालों तक मारे-मारे फिर रहे हैं। लोगों में न्याय प्रक्रिया में भारी-भरकम खर्च तथा सुनवाई के होने वाले विलंब को लेकर आक्रोश भी है। अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी को भारत की न्यायपालिका ने समय-समय पर बहुत अच्छी तरह से निभाया है।

उसकी निष्ठा संदेह से परे है लेकिन अगर कभी उसकी मंशा और पारदर्शिता पर सवाल खड़े होते हैं तो उसे दूर करने की जिम्मेदारी भी होनी चाहिए। न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर नियुक्तियों को लेकर हमेशा से ही पारदर्शिता की बात की जाती रही है। 2014 में संसद ने जजों द्वारा जजों की नियुक्तियां करने वाली कोलेजियम प्रणाली की जगह न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून (एनजेएसी) पारित किया। इरादा यही था कि न्यायपालिका के पारदर्शी पर्दे को और पारदर्शी बनाया जाए। सरकार और समाज को इस नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल करने के लिए न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान किया गया। कार्यपालिका के इस कदम को न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता पर अतिक्रमण करार देते हुए एनजेएसी अधिनियम को असंवैधानिक करार दिया। जजों द्वारा जजों की नियुक्ति वाली कोलेजियम प्रणाली फिर से लागू हो गई। अब यह विवाद है कि सरकार जजों की नियुक्तियों में कुछ दखल चाहती है, जो स्वाभाविक रूप से न्यायपालिका को मंजूर नहीं है। हाईकोर्टों के जजों के लिए कोलेजियम ने बहुत सारी सिफारिशें की हैं लेकिन उनको भरा नहीं जा रहा है। सरकार उनकी नियुक्ति नहीं कर रही।

भारत के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में भावुक हुए। आबादी के अनुपात में जजों की संख्या बहुत कम है। चीफ जस्टिस ने 1987 में दी गई विधि आयोग की सिफारिशों का जिक्र करते हुए कहा कि जहां आयोग प्रति दस लाख की आबादी पर 50 जजों का प्रस्ताव करता है वहीं भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर कुछ ही जज हैं। इसलिए न्याय में देरी तो होगी ही। उन्होंने मुकदमों की भारी बाढ़ से निपटने के लिए न्यायाधीशों की संख्या को मौजूदा 21 हजार से 40 हजार किए जाने की दिशा में सरकार की निष्क्रियता पर अफसोस जताते हुए कहा—आप सारा बोझ न्यायपालिका पर नहीं डाल सकते। चीफ जस्टिस यूं ही भावुक नहीं हुए। देश की जिला अदालतों में 2 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। देश में 73 हजार लोगों पर एक जज है। जिस रफ्तार से मुकदमों की सुनवाई हो रही है और जिस रफ्तार से मुकदमों की संख्या बढ़ रही है, ऐसे में तो हर मामले को 30-30 साल लग जाएंगे। जब 1950 में संविधान ने पहली बार नागरिकों को मूल अधिकार दिए और जजों को कार्यपालिका के काम की समीक्षा के नए अधिकार दिए तब से न्यायपालिका के काम का दायरा लगातार बढ़ता रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि सरकार न्यायपालिका की समस्याओं को दूर करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से जजों की लंबी छुट्टियों वाले बयान पर भी चीफ जस्टिस ने पलटवार किया कि जज गर्मियों की छुट्टियों का लुत्फ उठाने के लिए हिल स्टेशन नहीं जाते बल्कि वे अपना समय मुकदमों के फैसले लिखने में लगाते हैं। चीफ जस्टिस टी.एस. ठाकुर ने न्यायपालिका के मौजूदा ढांचे पर खुलकर बोलकर देश को सच्चाई से रूबरू करवाया है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बेहतर तालमेल से बेहतर भारत बन सकता है।

जल्द से जल्द इंसाफ दिलाना विकास का एक जरूरी हिस्सा है, जिसके लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका को मिलकर काम करना होगा। न्यायपालिका को ईमानदार और काबिल जजों की जरूरत है, यह भी सही है कि इन पदों के लिए योग्य व्यक्ति भी नहीं मिल रहे। काबिल जज तभी मिलेंगे जब काबिल वकीलों की नियुक्ति की जाएगी। देश का हर व्यक्ति जानता है कि सिर्फ स्वतंत्र और सक्षम न्यायिक व्यवस्था ही समाज में विश्वास कायम रख सकती है। क्या यह सम्भव नहीं कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा हर अनुशंसा का परीक्षण, चयनित जजों की पृष्ठभूमि, वित्तीय स्थिति, पेशेवर कार्य को जनता के समक्ष उसी तरह रखा जाए जिस तरह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के मामले में होता है। जज खुद भी इस देश के नागरिक हैं तो वह दूसरों से अलग कैसे हो सकते हैं। न्यायपालिका की गरिमा बनी रहे इसलिए कार्यपालिका और न्यायपालिका को संतुलन बना कर काम करना होगा। अगर न्यायपालिका की गरिमा ही नहीं रही तो फिर बचेगा क्या?
 

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