- अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।
लोकतंत्र की शुरूआत हालांकि लोगों यानी लोक के तंत्र के रूप में हुई परंतु भारत में श्रमिक वर्ग के अनुभव बहुत मिले-जुले रहे। किसी भी देश का विकास उसकी श्रम शक्ति पर निर्भर करती है। श्रमिक वर्ग संतुष्ट होगा, खुश होगा तो वह देश की प्रगति में अपने योगदान को लेकर निष्ठापूर्वक काम करेगा। यदि श्रमिक वर्ग में अशांति है तो विकास की रफ्तार अवरुद्ध होगी ही। हमारे देश में बहुत सारे श्रम कानून लोकतंत्र की स्थापना से पूर्व ब्रिटिश शासनकाल में बने, कुछ आजादी के तुरंत बाद के सालों में, कुछ और बाद में बने, आज तक बनते आ रहे हैं लेकिन उन सबकी धज्जियां उड़ाई गईं। श्रमिकों की कई तरह की प्रतिक्रियाएं व्यवस्था के फैसलों पर उपजती रही हैं और भविष्य में भी उपजती रहेंगी। हम भले ही लोकतंत्र में रह रहे हैं परंतु सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की लड़ाई अब भी जारी है। कई बार सत्ता ऐसे फैसले कर लेती है जिसमें सवाल उठता है कि क्या यह लोकतंत्र पूंजीवादी है जबकि जरूरत श्रमिकों को केंद्र में रखने वाले समाजवादी लोकतंत्र की है।
भविष्य निधि को लेकर बनाए गए नए नियमों को केंद्र सरकार ने चौतरफा विरोध के कारण रद्द कर दिया। केंद्र ने यह फैसला बेंगलुरु में नए नियमों को लेकर भड़की हिंसा के तुरंत बाद किया। सरकार ने फैसला लेकर अच्छा ही किया। इससे पहले मार्च में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट में भविष्य निधि की निकासी पर कर लगाने का प्रस्ताव किया था तब भी श्रमिक संगठनों के कड़े विरोध के चलते प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा था। श्रमिक संगठनों का कहना था कि कर्मचारी को अपनी मेहनत का पैसा निकालने पर कर क्यों लगे क्योंकि वह अपनी आय पर स्रोत पर ही कर कटवाता आया है। फिर अपने ही पैसे पर कर्मचारी दोहरा कर क्यों चुकाए। केंद्र सरकार ने फिर भविष्य निधि निकासी के नियम कड़े किए और दस फरवरी को इस संबंध में अधिसूचना भी जारी कर दी। नए नियम में 58 वर्ष की आयु से पहले पीएफ निकालने पर पाबंदी लगा दी। नौकरी से निकाले जाने पर बेरोजगार होने की स्थिति में कर्मचारियों को केवल अपना अंशदान मिलेगा, नियोक्ता का अंशदान उसे 58 वर्ष की आयु पूरी करने पर ही मिलेगा।
भविष्य निधि में से नियोक्ताओं के योगदान की निकासी पर पाबंदी को लेकर श्रमिक वर्ग में असंतोष की लहर पैदा हो गई थी। मामले को शांत करने के लिए श्रम मंत्रालय ने यह भी कहा कि वह कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के पास जमा पूरी राशि को मकान खरीदने, गंभीर बीमारी, शादी या बच्चों की पेशेवर शिक्षा जैसे कार्यों के लिए अंश धारकों को निकालने की अनुमति देगा। बाद में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने दस फरवरी की अधिसूचना को ही रद्द करने के फैसले की जानकारी दी। श्रम मंत्रालय का कहना था कि भविष्य निधि निकासी के नए नियम सेवानिवृत्त कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए थे। यह सही है कि ढलती उम्र के लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा को यकीनी बनाया जाना चाहिए लेकिन श्रमिक वर्ग के धन पर किसी तरह का अंकुश नहीं लगाया जाना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति लंबे अर्से तक बेरोजगार रहता है तो उसके पास भविष्य निधि का पैसा निकाल कर बैंक में जमा करा कर उस पर मिलने वाले ब्याज से अपना खर्च चलाने का विकल्प होता है, अगर उसे पूरा पैसा नहीं मिलता तो वह करेगा क्या? अगर किसी को 54 वर्ष की उम्र में बेटी की शादी करनी है तो फिर 58 वर्ष की उम्र तक इंतजार करता रहेगा। ऐसे कुछ हास्यास्पद फैसलों का विरोध होना ही था। ऐसे नियमों ने श्रमिक वर्ग को परेशान करके रख दिया था। भारत में सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारियों के पास भविष्य निधि की सबसे बड़ी सामाजिक सुरक्षा है, जिसे वह अपनी ऐसी पूंजी मानता है जिसके सहारे उसके जीवन की गाड़ी चलती रहेगी। हमारे देश में पेंशन नीति को लेकर भी काफी विद्रूपताएं हैं। सरकारी कर्मचारियों की पेंशन तो 30-40 हजार तक हो रही है जबकि निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की पेंशन कुछ 4-5 हजार तक सीमित है। असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों का तो भगवान ही मालिक है।
भविष्य निधि न्यास श्रमिकों के हितों को देखते हुए समय-समय पर कई कदम उठाता है। देश के निजी क्षेत्र के कर्मचारी वर्ग को पेंशन की सम्मानजनक राशि तो मिलनी चाहिए जिससे वह गुजर-बसर आसानी से कर सके। केंद्र सरकार को कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखना ही होगा। श्रम सुधारों को लेकर भी केंद्र और श्रमिक संगठनों में मतभेद बने हुए हैं। यह सही है कि आर्थिक गतिविधियां बढ़ाए बिना श्रम बल की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। यदि श्रमिक अशांति से निवेश का प्रवाह रुका तो रोजगार नहीं बढ़ेगा। यह बात श्रमिक संगठनों को भी ध्यान में रखनी होगी। अब भविष्य निधि का मसला हल हो चुका है तो श्रमिक संगठनों को सरकार के साथ वार्ता कर श्रमिक सुधारों का मसला हल करना होगा।