29 Mar 2024, 15:23:56 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-कैलाश विजयवर्गीय
लेखक भाजपा के महासचिव हैं।


भारतीय परंपराओं में मयार्दाओं का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इसका उल्लेख हमारे संविधान निर्माताओं ने अनेक बार अलग-अलग स्थानों पर किया है। इसी बात का उल्लेख महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भोपाल में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के समारोह में किया। महामहिम राष्ट्रपति ने न्यायाधीशों को न्यायिक सक्रियता के जोखिमों के प्रति सचेत करते हुए कहा था कि अधिकारों का उपयोग करते हुए हर समय सामंजस्य स्थापित करना चाहिए और ऐसी स्थिति सामने आने पर आत्मसंयम का परिचय देना चाहिए। संविधान को सर्वोच्च बताते हुए उनका कहना था कि लोकतंत्र के हर अंग को अपने दायरे में रहकर काम करना चाहिए और जो काम दूसरों के लिए निर्धारित है उसे अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। न्यायिक सक्रियता को अधिकारों के बंटवारे को कमतर करने की तरफ अग्रसर नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिकारों का बंटवारा संवैधानिक योजना है। संविधान के तहत शासन के तीन अंगों के बीच सत्ता का संतुलन संविधान में निहित है। उन्होंने यह भी कहा था अधिकारों का उपयोग करते समय न्यापालिका द्वारा आत्मसंयम और स्व-अनुशासन एकमात्र संभव नियंत्रण है। ऐसा लग रहा है कि महामहिम राष्ट्रपति का वक्तव्य न्याय पालिका के एक वर्ग को अच्छा नहीं लगा है।

इसी कारण नैनीताल हाई कोर्ट की खंडपीठ ने ‘‘राष्ट्रपति भी गलती कर सकते हैं’’ जैसी तल्ख टिप्पणी की है। खंडपीठ की इस टिप्पणी पर हैरानी भी है। अक्सर न्यायाधीश महोदय मामले की सुनवाई के दौरान राष्ट्रपति प्रधानमंत्री सरकारों या संविधानिक पदों पर बैठे लोगों नौकरशाहों और अन्य संस्थानों पर कड़ी टिप्पणी करते रहते हैं। सरकारों को खरी खोटी सुनाई जाती है। ऐसी कठोर टिप्पणियों का हवाला फैसले में नहीं किया जाता है। माना जाता है कि यह सब केवल मीडिया में सुर्खियां बटोरने के लिए जाता है। मनमोहन सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन के लिए जो दस्तावेत तैयार किया था उसमें इस बात का प्रावधान बनाने का प्रस्ताव था कि अदालतें राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और अन्य सांविधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों पर ऐसी टिप्पणी न करें जिसका फैसले में उल्लेख नहीं करना है। न्यायपालिका ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। महामहिम राष्ट्रपति ने अदालतों में बेवजह होने वाली टिप्पणियों को लेकर ही राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के सम्मेलन में न्यायाधीशों को सलाह दी थी।

उत्तराखंड हाईकोर्ट की टिप्पणी पर गौर कीजिए। उत्तराखंड हाईकोर्ट की खंडपीठ की टिप्पणी है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं। इस देश में कोई सर्वशक्तिमान नहीं है। राष्ट्रपति अच्छा इनसान हो सकता है लेकिन राष्ट्रपति से भी गलती हो सकती है। न्यायाधीश भी गलती कर सकते हैं। भारतीय न्यायपालिका में दोनों के फैसलों को चुनौती दी जा सकती है। अदालत की यह तल्ख टिप्पणी खंडपीठ ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को लेकर केंद्र की तरफ से पैरवी कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलील पर थी। उनकी दलील थी कि यह कोई इंस्पेक्टर का आदेश नहीं राष्ट्रपति का है। उनका लंबा अनुभव है काफी सोच समझ कर उन्होंने फैसला दिया है। साथ ही हाईकोर्ट ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि उम्मीद है कि केंद्र सरकार अदालत को उकसाने जैसा कोई कदम नहीं उठाएगी। अदालत का फैसला आने तक सूबे से राष्ट्रपति शासन नहीं हटाएगी। इसके अगले दिन ही हाई कोर्ट ने हरीश रावत की याचिका पर राष्ट्रपति शासन हटाने का फैसला दे दिया। हाईकोर्ट ने राज्य के मुख्यमंत्री हरीश रावत से 29 अप्रैल को सदन में बहुमत साबित करने को कहा है। हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ तो केंद्र  को सरकार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए पर महामहिम राष्ट्रपति के खिलाफ की गई टिप्पणी से कई सवाल उठ रहे हैं।
मेरा लेख लिखने का उद्देश्य हाई कोर्ट की खंडपीठ का महामहिम राष्ट्रपति के खिलाफ तल्ख टिप्पणी को लेकर बहस करना है। राष्ट्रपति के खिलाफ किसी मामले में कोर्ट ने इतनी कठोर टिप्पणी नहीं है। याद कीजिए कि 1975  में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी केबिनेट की सिफारिश आने से पहले आपातकाल लगाने की घोषणा पर दस्तखत कर मंजूरी दे दी थी। 1984 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने संसदीय दल की बैठक में नेता चुनने से पहले ही राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जिन आधार पर राष्ट्रपति शासन खत्म किया है और कांग्रेस में मुख्यमंत्री के खिलाफ विधायकों की सदस्यता रद्द की है उसके खिलाफ तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में तथ्य रखेगी कि पर यह बहस जरूर शुरू हो गई है कि क्या अदालत को इतनी तल्ख टिप्पणी करनी नहीं चाहिए थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों विधिक कार्रवाई से व्यक्तिगत छूट मिली है। कोई अदालत राज्य के प्रमुख को किसी शक्ति का प्रयोग करने या कर्तव्य का पालन बाध्य नहीं कर सकता और न ही रोक सकता है।

यह संरक्षण बहुत विस्तृत है। यह अधिकार सरकारी कामों के साथ ही संविधान के बाहर के कार्यों के लिए भी है। अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति या राज्यपाल को पक्षकार बनाने या उन्हें सूचना जारी के खिलाफ पूरी रक्षा करता है। वे अपनी शक्ति के लिए किसी अदालत में उत्तरदाई नहीं है। इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति  को और अनुच्छेद 161में राज्यपाल या राज्यप्रमुख को किसी अपराध के लिए सजा पाने वाले व्यक्ति के अपराध को क्षमा करने की शक्ति प्रदान की गई है।  जब कोई कैदी अपने अपनी सजा को कम करने या माफी मांगने की अपील करता है तो याचना पत्र राष्ट्रपति या राज्यपाल को भेजता है तो उसे ही सामूहिक रूप में दया याचिका की संज्ञा दी जाती है। राष्ट्रपति की यह शक्ति हमारे देश की प्राचीनतम अवधारणा पर आधारित है कि राजा किसी भी अपराधी की सजा को माफ कर सकता है। राजा ही देश का प्रमुख होता था इसी कारण यह अधिकार संविधान के तहत देश के प्रमुख राष्ट्रपति को दी गई है। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जिस तरह महामहिम राष्ट्रपति के खिलाफ टिप्पणी की है उसे लेकर आपत्तियां उठ रही हैं। पहले भी राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति प्रधानमंत्री या अन्य संविधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ बेवजह की गई टिप्पणियों को लेकर एतराज जताया गया है। इसी कारण यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग में बेवजह टिप्पणी करने के खिलाफ नियम बनाने का फैसला किया था। हैरानी की बात यह है कि सभी को जवाबदेह बनाने की बात करने वाली न्यायपालिका खुद जवाबदेह होने के लिए तैयार नहीं है। न्यायिक सक्रियता के कारण परंपराओं पर आघात हो रहा है। अदालत फैसला दे तो की गई टिप्पणियों को भी सम्मिलित करें तभी न्याय व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बना रहेगा। इस तरह की टिप्पणियों पर आपत्ति भी होना चाहिए नहीं तो देश में गलत परंपरा को बढ़ावा मिलेगा।
 

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