18 Apr 2024, 15:23:29 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।


अप्रैल माह की शुरूआत अप्रत्याशित रूप से गर्म है। मौसम विभाग पहले ही पूवार्नुमान जता चुका है कि इस वर्ष अप्रैल से जून तक के दौरान औसत से अधिक गर्मी पड़ेगी। पश्चिमी राजस्थान में गर्म हवाओं का दौर जारी है तो पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे पूर्वी राज्यों में भी जबर्दस्त गर्मी पड़ रही है। उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल, पश्चिम में कोंकण, गोवा, मध्य महाराष्ट्र, मराठवाड़ा, विदर्भ, छत्तीसगढ़ और दक्षिण में तेलंगाना, रायल सीमा तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल के कुछ हिस्सों में सूर्य आग उगल रहा है। गर्मी से लगातार हो रही मौतों का आंकड़ा विकराल हो चुका है। वैसे तो 2015 सबसे गर्म साल रहा लेकिन 2016 की प्रचंड गर्मी पिछले वर्ष का रिकार्ड तोड़ सकती है।

पिछले वर्ष पृथ्वी की सतह का तापमान एक डिग्री बढ़ गया था। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर गर्मी जानलेवा क्यों बनी? इस भीषण गर्मी में काफी भूमिका अल नीनो की है। अल नीनो जब सक्रिय होता है तब प्रशांत महासागर में पानी की ऊपरी सतह असामान्य रूप से गर्म हो जाती है। इस समुद्री जल की सतह को स्पर्श कर जो हवाएं चलती हैं, वह पूरे विश्व को प्रभावित करती हैं। अल नीनो का प्रभाव वर्ष 2015 में पीक पर था। इस वर्ष पृथ्वी के तापमान में जितनी बढ़ोतरी सम्भावित है उसका 25 फीसदी कारण पिछले वर्ष में अत्यधिक सक्रिय रहे अल नीनो का होगा। शेष कारणों में ग्रीन हाऊस गैस और अन्य कारक हैं। सामान्य रूप से पृथ्वी की सतह का तापमान 14 डिग्री सेल्सियस होता है। पूरे विश्व में कई स्थानों के तापमान को नोट कर उसका औसत निकाला जाता है। तापमान में बढ़ोतरी का आधार इसी को बनाया जाता है। जब भी गर्मी इस तरह से बढ़ती है तो कहा जाने लगता है कि यह ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है। यह सही है कि मौसम चक्र बदल रहा है। जिसकी वजह से पर्यावरण भी बदल रहा है और ग्लोबल वार्मिंग को एक हकीकत के रूप में स्वीकार कर लिया गया है लेकिन गर्मी की वजह से मरने वालों की बड़ी संख्या यह बताती है कि कुछ वर्ष बाद आने वाली मौसमी आपदा या उसके बिगड़े मिजाज का सामना करने के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं। इसके लिए मानव स्वयं जिम्मेदार है, जितना खिलवाड़ प्रकृति से मानव ने किया है उतना किसी और ने नहीं किया। तालाब और कुएं पाट दिए गए, पोखर, नदियां, नहरें सब सूख चुके हैं।

वास्तविकता थी कि किसी भी मौसम की अति मनुष्य के भीतर के इनसान को आवाज देती थी, जो किसी दूसरे की सेवा के लिए प्रेरित करती थी लेकिन आर्थिक आपाधापी और विकास के इस नए युग में सेवाभाव लुप्त हो गया। अब तो बिना पैसा दिए प्यास भी बुझाना मुश्किल है। जल संरक्षण का किसी ने प्रयास ही नहीं किया और भूमिगत जल का स्तर इतना गिर गया है कि गहरी खुदाई करके भी पानी नहीं मिलता। पानी लगभग बाजार के हवाले है और बाजार को इससे कोई लेना-देना नहीं कि कौन लू की चपेट में आकर दम तोड़ रहा है और कौन सड़क पर बेहोश पड़ा है। देश के 14 राज्यों में सूखा है और राज्य पानी के बंटवारे को लेकर उलझ रहे हैं। बाढ़ और भूकंप को तो प्राकृतिक आपदा माना जाता है लेकिन भीषण गर्मी को प्राकृतिक आपदा मानने का कोई प्रावधान नहीं है। मौसम से लड़ने वाला हमारा सामाजिक तंत्र अब कमजोर हो चुका है। अब सड़कों पर जगह-जगह प्याऊ कौन लगाता है, मीठा जल पिलाना भी एक या दो दिन की रस्म अदायगी ही रह गई है क्योंकि इनसान खुद निष्ठुर हो चुका है। यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी तरह जारी रहा तो आगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे। आने वाले वर्षों में तापमान 45 डिग्री से बढ़कर 50 डिग्री तक जा सकता है। पहाड़, मैदान, रेगिस्तान, दलदली क्षेत्र और पश्चिमी घाट जैसे समुद्री क्षेत्र ग्लोबल वार्मिंग के कहर का शिकार होंगे। कृषि जल, पारिस्थितिकी तंत्र एवं जैव विविधता और स्वास्थ्य भीषण गर्मी से उत्पन्न समस्याओं से जूझते रहेंगे। आर्कटिक में पूरे उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में तीन गुना तेजी से तापमान बढ़ा है, उसकी वजह मानवीय गतिविधियों से पैदा हो रही कार्बन डाईआक्साइड है। जब तक ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कटौती नहीं होती तब तक पर्यावरण नहीं सुधर सकता। इस बात की आशंका जताई जा रही है कि अगर अगले 20-25 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा तो भी मानव का क्या होगा? भारत में बदलते मौसम की मार अन्य देशों की अपेक्षा ज्यादा है। सरकार और समाज को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर और संवेदनशील होना होगा अन्यथा प्रकृति के प्रति निष्ठुर हो चुके इनसान को खुद बहुत नुकसान होगा।
 

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