26 Apr 2024, 02:02:40 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

कैलाश विजयवर्गीय
-लेखक राष्ट्रीय महासचिव भारतीय जनता पार्टी


संसदीय प्रणाली के उद्भव के साथ ही यह सिद्धांत प्रतिपादित और स्थापित हुआ कि बहुमत जांचने का एकमात्र मंच सदन है। इस संसदीय सिद्धांत की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने एस.आर. बौम्मई मामले में अपने निर्णय से की।  संविधान के लागू होने के पश्चात विगत 65 वर्षों में संसद एवं राज्य विधान मंडलों में ऐसे अनेक अवसर आए जब बहुमत जांचने का निर्णय सदन में ही हुआ, किंतु विगत कुछ वर्षों में विधानसभा के अध्यक्षों एवं राज्यपालों के द्वारा जब राजनीतिक प्रतिबद्धता और किसी दल विशेष के लाभ अथवा हानि को प्राथमिकता देकर निर्णय लेने का सिलसिला प्रारंभ हुआ, तब विधान मंडलों की न केवल सर्वोच्चता प्रभावित हुई अपितु इसकी गरिमा का भी हृास हुआ। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय (जिस पर वर्तमान में उच्च न्यायालय की डबल बेंच ने स्थगन आदेश दिया हुआ है) कि सभा में बहुमत सिद्ध किया जाए और यह भी निर्धारित किया कि उसकी प्रक्रिया क्या होगी ? न्यायपालिका के प्रतिनिधि को पर्यवेक्षक के रूप में बैठाना और गोपनीय मतदान के मतपत्र उच्चतम न्यायालय को सौंपना, न्यायपालिका का ऐसा कदम है जो संसदीय प्रजातंत्र में जिसमें विधान मंडल सार्वभौम संस्थाएं हैं, की सार्वभौमिकता को चुनौती स्वरूप है, किसी भी परिस्थिति में अच्छा संकेत नहीं है।

जब-जब न्यायपालिका ने विधान मंडलों के सदनों में प्रवेश का प्रयास किया, इसके जिम्मेदार विधान मंडल का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वोच्च प्राधिकारी विधानसभा के अध्यक्ष और संविधान के रक्षक व अनुच्छेद 168 के अंतर्गत विधान मंडल के अविभाज्य अंग राज्यपाल ही जिम्मेदार है। उत्तराखंड की स्थिति पर विचार करने के पूर्व इसकी पृष्ठभूमि को भी देखना आवश्यक है।  विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया, तब से हरीश रावत न केवल नाराज थे अपितु उन्हें अस्थिर करने के लिए निरंतर प्रयासरत थे और केदारनाथ त्रासदी से उन्हें यह अवसर प्राप्त हुआ और बहुगुणा की प्रशासनिक कमजोरी के आरोपों का लाभ ऊठाते हुए मुख्यमंत्री पद प्राप्त कर लिया, तब से ही  विजय बहुगुणा ने बगावत का झंडा उठाया था और मार्च के पहले सप्ताह में मुख्यमंत्री के तानाशाही भरे व्यवहार से परेशान कुछ मंत्रियों और विधायकों का संपर्क  विजय बहुगुणा से हुआ और वे हरीश रावत सरकार के खिलाफ लामबंद हो गए।

उत्तराखंड विधानसभा का बजट सत्र प्रारंभ होने पर श्री विजय बहुगुणा इस प्रयास में थे कि जब भी सदन में बहुमत सिद्ध करने का अवसर मिलेगा, वे हरीश रावत सरकार का अल्पमत सिद्ध करेंगे। विजय बहुगुणा ने अपने साथ 9-10 विधायकों का समर्थन प्राप्त कर विनियोग विधेयक पर होने वाले मतदान के दिन को उपयुक्त पाया और भाजपा के विधायक दल के नेता से संपर्क किया ,मतदान के पूर्व विधान सभा अध्यक्ष को लिखित में यह आवेदन दिया कि विनियोग विधेयक पर मतदान कराया जाए और यही नहीं उन्होंने महामहिम राज्यपाल को भी ऐसा ही एक आवेदन दिया। मुख्यमंत्री हरीश रावत और विधान सभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल को यह आभास हो गया था कि सरकार को बहुमत प्राप्त नहीं है और यदि विनियोग विधेयक पर मतदान करवाया गया तो विनियोग विधेयक पारित नहीं हो पाएगा, फलस्वरूप सरकार गिर जाएगी । इस स्थिति में हरीश रावत एवं  गोविंद सिंह कुंजवाल ने एक षड़यंत्र रचा कि विनियोग विधेयक पर सरकार को वे गिरने नहीं देंगे, चाहे इस हेतु अध्यक्ष का पद और सदन की आसंदी की गरिमा तार-तार हो जाए । विधान सभा अध्यक्ष ने वही किया जो मुख्यमंत्री चाहते थे और विनियोग विधेयक पर मतदान नहीं कराते हुए, विनियोग विधेयक के पारित होने की घोषणा कर दी और हो-हल्ले तथा शोर-शराबे के बीच सदन की बैठक स्थगित भी कर दी। इस प्रकार मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ बहुमत जांचने की प्रक्रिया को विधानसभा के अध्यक्ष  गोविंद सिंह कुंजवाल ने षड़यंत्र के अंतर्गत निष्प्रभावी कर दिया। 

इस संपूर्ण घटनाक्रम से महामहिम राज्यपाल महोदय को भी 18 मार्च की रात को  भाजपा विधायक दल व 9 अन्य सदस्यों के द्वारा अवगत कराया गया व उनसे संविधान के प्रावधानों की रक्षा करने की गुहार की। राज्यपाल जिन पर संविधान की रक्षा करने का दायित्व है, संविधान के अनुरूप कार्यवाई नहीं करके दायित्वों के निर्वहन में विफल रहे।  ऐसे अवसरों पर जब सत्तापक्ष और अध्यक्ष मिलकर सभा में अलोकतांत्रिक कृत्य को अंजाम दें, मुख्यमंत्री और अध्यक्ष दोनों अपने पद का दुरूपयोग करें, संविधान के अंतर्गत विधानसभा के अविभाज्य अंग होने के नाते महामहिम राज्यपाल को ऐसे अवसरों पर हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त था किन्तु महामहिम राज्यपाल ने भी संविधान के अंतर्गत उन्हें प्राप्त अधिकारों का प्रयोग नहीं किया और वे भी किसी-न-किसी रूप में अज्ञात कारणों से सत्ताधारी दल को मदद करने की मानसिकता से कार्यरत रहें।

राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 175(2) जिसमें अन्य संदेश का उल्लेख है एवं इस अनुच्छेद के क्रियावन्यन के संबंध में उत्तराखंड विधान सभा प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमावली के नियम 22 के अंतर्गत सदन में हरीश रावत सरकार को बहुमत सिद्ध करने के लिए विनियोग विधेयक पर मतदान कराने का संदेश भेजते हुए विनियोग विधेयक को वापस किया जाना था। बहुमत जांचने की संविधान सम्मत कार्यवाही तो यही होती। किंतु ऐसा नहीं करके महामहिम राज्यपाल ने भी अपरोक्ष रूप से मुख्यमंत्री हरीश रावत एव विधान सभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल का साथ ही दिया। महामहिम राज्यपाल ने  हरीश रावत सरकार को बहुमत सिद्ध करने के लिए संविधान सम्मत कार्यवाई करते हुए बहुमत की जांच के लिए 28 मार्च तक का समय देकर मुख्यमंत्री को हार्स ट्रेडिंग करने का समय दिया।

पूर्व मुख्यमंत्री  हरीश रावत कैमरे के सामने विधायकों को प्रलोभन देते हुए और सौदेबाजी करते हुए दिखाई दिए, जिसकी पुष्टि चंडीगढ की फॉरेंसिक लैब ने भी की। इसके साथ ही विधान सभा अध्यक्ष को भी सदन में बहुमत जांचने के पूर्व संविधान की दसवीं अनुसूची के अंतर्गत कार्यवाई करने का अवसर प्रदान किया और विधान सभा अध्यक्ष ने जल्दबाजी में बहुमत की जांच हेतु निर्धारित दिनांक के ठीक एक दिन पूर्व बागी विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। केंद्र सरकार का दायित्व है कि प्रत्येक राज्य में संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत सरकार चले और यही कारण है कि जब यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा कि उत्तराखंड में संवैधानिक प्रावधानों का लगातार उल्लंघन हो रहा है, बहुमत के लिए सौदेबाजी का आलम चरम पर है, केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में महामहिम राष्ट्रपति से राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की, जिसे राष्ट्रपति ने स्वीकार किया। विधान मंडल संविधान के अंतर्गत सर्वोच्च जन प्रजातांत्रिक संस्था है और अपना कार्यकरण निर्धारित करने के लिए इसे सार्वभौमिकता प्राप्त है किंतु जब-जब इन संस्थाओं के प्रमुख पदाधिकारी और संविधान के रक्षक के तौर पर जिम्मेदारी निभाने वाले राज्यपाल अपने दायित्वों का निर्वाह समुचित रूप से नहीं करते हैं, तब ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं कि न्यायालय इन संस्थाओं की सार्वभौमिकता को चुनौती देते हुए यह निर्देशित करते हैं कि इन सार्वभौमिक संस्थाओं की कार्यवाही किस प्रकार से संपादित हो। 

न्यायपालिका में भी निर्णय करने वाले उनकी पसंद-नापसंद से संभवत: प्रभावित रहते हैं और यही कारण है कि न्यायपालिका के निर्णय प्रत्येक स्तर पर परिवर्तित होते हैं । उत्तराखंड उच्च न्यायालय की एक सदस्यीय पीठ के निर्णय को दो सदस्यीय पीठ ने अंतरिम तौर पर स्थगन आदेश जारी करते हुए निष्प्रभावी कर दिया है। किन्तु उसके पूर्व न्यायालय में संविधान के प्रावधानों की विवेचना का सिलसिला जारी रहेगा, अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। अब यह समय है जब विधान मंडलों के पदाधिकारी गंभीरता से यह विचार करें कि उनका कार्य व्यवहार निष्पक्ष एवं संविधान सम्मत हो ताकि विधान मंडलों की सार्वभौमिकता बनी रहे।
(ये लेखक के निजी विचार है)
 

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