20 Apr 2024, 16:04:27 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

पिछले दिनों इंदौर मेंं नव आरक्षकों का दीक्षांत समारोह हुआ। इसमें लगभग 400 महिला नव आरक्षक भी परेड में शामिल थीं। इनकी कदम ताल देखकर न केवन सभी आश्चर्यचकित थे बल्कि अभिभूत भी थे। सेल्फ लोडेड राइफल्स के साथ जब इन्होंने मार्च पास्ट किया तो दर्शक दीर्घा में बैठे इनके माता-पिता व परिवार वालों के चेहरे चमक उठे। यह वह क्षण था जिसका जो भी कोई साक्षी बना वह महिला शक्ति को देखकर चमत्कृत हो गया। आज से कुछ समय पहले तक यह कितना अकल्पनीय था कि वर्दीधारी महिलाएं यूं कदम ताल मिलाती हुर्इं, सलामी मंच को सलामी देतीं, परेड करती निकलें। सबसे बड़ी व अनोखी बात यह है कि यह युवतियां संपन्न परिवारों की नहीं, बल्कि उस वर्ग के परिवारों से है जहां अब भी लड़कियों के लिए दरवाजे खुले नहीं माने जाते। उनके परिवार न तो उच्च शिक्षित हैं और न ही महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातों से परिचित हैं, पर अब वह इतना जरूर जानने और समझने लगे हैं कि उनकी बेटियां भी आत्मविश्वास से भरकर व आत्मनिर्भर बनकर बहुत कुछ ऐसा कर सकती हैं जिससे परिवार को उन पर  गर्व हो। वह वर्दी पहनकर हाथ में राइफल उठाकर सधे हुए कदमों से चलकर अब समाज में फैली उस बुराई को खत्म कर सकती हैं जिसने सदियों तक लड़कियों को बोझ माना और उसे दान में दी जाने वाली वस्तु के नाम पर किसी के भी पल्ले बांध दिया। यह वर्दीधारी युवतियां अपने ही समान अनेक युवतियों के सम्मान व आदर की रक्षक व प्रहरी बन गई हैं। यह उस विचार की प्रतीक बन गई हैं जो समाज में अपने साथ होने वाले किसी भी अन्याय व शोषण को अब सहन नहीं करेगा।
इनकी क्षमता व योग्यता तो इसी बात से सिध्द हो गई जब इन्होंने अपने प्रशिक्षण के कठिन दौर को पूरा किया और परेड करने की हर गतिविधि में अपनी सक्रियता दिखाई। यह उस विचार को भी चुनौती देती हैं जिसने महिलाओं को जान बूझकर कोमलांगी और छुई-मुई का दर्जा देकर उन्हें घर की चाहर दीवारी में कैद करने का षड्यंत्र रचा। बरसों तक पुरुष प्रभुता ने अपना सिक्का जमाए रखने के लिए यह भ्रम बनाएं रखा कि शारीरिक क्षमता के कार्य तो महिलाएं कर ही नहीं सकतीं, इसलिए वह अपनी सुरक्षा करने में  भी अक्षम हैं और केवल इसी कारण उन्हें घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए, जबकि जब-जब उसे जरूरत पड़ी वह तब उनसे मजदूरी भी करवाता रहा, फावड़े चलवाता रहा और फसलें कटवाता रहा। तब उसे महिलाओं की शारीरिक क्षमता पर प्रश्न उठाने याद नहीं रहे।

आज जो कुछ समाज में बदलाव आ रहा है यदि वह अंतिम छोर तक नहीं पहुंचता तो वह निरर्थक माना जाएगा। केवल बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों और अन्य स्थापित पदों पर महिलाओं के पहुंच जाने से महिला सशक्तिकरण सफल नहीं माना जा सकता। हर वर्ग की महिलाओं तक जब इसकी स्वीकारता बढेगी तभी महिला हितों का बदलाव नजर आएगा। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो वर्दीधारी यह नव आरक्षक जब अपनी ड्यूटी करेंगी तब ही यह लगेगा कि महिलाओं के लिए वास्तव में कुछ हुआ है। यह युवतियां उस परिवर्तन का प्रतीक हैं जो यह सुनिश्चित करेगा कि इसका असर अंतिम छोर तक पहुंचा है या नहीं तथा असमानता का बीज वहां नष्ट हुआ है या नहीं जहां परिवारों में बेटे के जन्म को ही वरदान माना जाता था।

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