-अश्विनी कुमार
-लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक है।
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एक बार पुन: चेतावनी दी है कि भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति इसकी सबसे बड़ी ताकत है जो इसे एक सूत्र में बांधे हुए हैं। मत विभिन्नता का आदर और विचार विरोध के प्रति सहिष्णु भाव रखना इसकी ऐतिहासिक परंपरा है। दरअसल श्री मुखर्जी स्वयं में वैचारिक विविधता और मतभिन्नता का सम्मान करने वाले आज के दौर के ऐसे राजनेता (स्टेट्समैन) हैं जिन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ते हुए एक तरफ शिवसेना जैसी घोर हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी का समर्थन प्राप्त किया था तो दूसरी ओर वामपंथी, समाजवादी पार्टी तथा पीडीपी और नैशनल कांफ्रेस व जनता दल (यू) से लेकर द्रमुक व अन्य क्षेत्रीय दलों का सहयोग पाया था। प्रश्न यह नहीं है कि हम हिंदू हैं या मुसलमान बल्कि प्रश्न यह है कि हम उस हिंदुस्तान के बाशिंदे हैं जिसका प्रथम ऐतिहासिक ‘चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य’ अपने जीवन के अंतिम चरण में ‘जैन मतावलंबी’हो गया था। यही तो भारत की वह विविधता है जो हमें लगातार सहिष्णु और सहनशील बनने की प्रेरणा देती है। यदि भारत की मिट्टी ने मुसलमान शासकों को अपने रंग में न रंगा होता तो क्यों खिलजी वंश के शासक अपने चलाए गए सिक्कों पर देवी लक्ष्मी की मूर्ति अंकित करते। इस संदर्भ में मुझे भाजपा के ही नेता सुरेन्द्र सिंह अहलूवालिया का मनमोहन सरकार के दूसरे चरण में राज्यसभा में दिया गया वह भाषण अभी तक याद है जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया था कि मुस्लिम सुल्तानों और शासकों ने किस प्रकार भारत की संस्कृति में स्वयं को समरस करने के लिए अपने चलाए गए सिक्कों पर कुबेर से लेकर देवी लक्ष्मी की मूर्तियां भी अंकित कीं और कुरान शरीफ की आयतों से लेकर कलमा तक भी अंकित कराया।
हम कैसे भूल सकते हैं कि मध्यप्रदेश के मांडू में स्थित किला मालवा के शासक बाजबहादुर और रानी रूपमती की प्रेम गाथाएं उनके संगीत प्रेम की उत्पत्ति ही थी। बेशक भारत का इतिहास मजहबी खुरेंजी से भी रंगा हुआ है मगर ऐसे शासकों को आज खुद मुसलमान भी याद करना गवारा नहीं करते हैं। यह भारत की संस्कृति की मिट्टी की ही ताकत थी कि छह सौ से ज्यादा सालों तक यह देश मुसलमान शासकों के कब्जे में रहा मगर इसके बावजूद किसी भी बादशाह की हिम्मत इसे इस्लामी देश बनाने की नहीं हो सकी। यह भारत की अभूतपूर्व और विचार वैविध्य को सम्मान देने वाली संस्कृति का ही असर था कि औरंगजेब जैसे शासक को भी चांदनी चौक में भगवान शिव का मंदिर ठीक लालकिले के सामने बनाने की इजाजत देनी पड़ी थी। यह क्या कोई छोटी बात थी कि इसी चांदनी चौक में फतेहपुरी की मस्जिद को अंग्रेजों से छुड़ाने के लिए इसी शहर के सेठ छुन्नामल ने तब 35 हजार रुपए की रकम अदा की थी। इस्लाम को कट्टरपंथियों ने बेशक हिंदुओं और उनकी संस्कृति के खिलाफ खड़ा करने की सारी तरकीबें भिड़ाई हों मगर सामाजिक स्तर पर पाकिस्तान बन जाने के बावजूद उनकी सारी तजवीजें पानी पर तलवार मारने की मानिंद ही साबित हुईं।
इसकी सबसे बड़ी वजह भारत की वह अर्थव्यवस्था है जिसमें हिंदू-मुसलमान दोनों के ही कंधे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। ईद पर खाते-पीते मुसलमान हिंदू हलवाइयों की मिठाइयां लेना सम्मानजनक मानते हैं तो हिंदुओं के तीज-त्यौहारों पर भगवान को चढ़ाये जाने वाले प्रसाद तक को मुसलमान कारीगर ही बनाते है। मंदिरों में स्थित देवी-देवताओं के शृंगार के सामान को मुसलमान कारीगर पूरी कशीदाकारी और कलाकारी के साथ बनाते हैं। पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद भी यह रवायत बदस्तूर जारी है और रहेगी भी क्योंकि पेट भरने के मामले में अल्लाह और भगवान हिंदू, मुसलमान या ईसाई का फर्क नहीं देखता है मगर यह रंग-बिरंगा भारत कभी भी आदिकाल से लेकर आज तक मतभिन्नता से घबराया नहीं बल्कि इसने मतों की विविधता के बीच ही अपनी एकात्म शक्ति का हर संकट के समय एक साथ खड़े होकर मुकाबला किया और यही तो भारत की अजीम ताकत है जिसमें द्रविड़ और आर्य संस्कृति सिंधु घाटी की सभ्यता से ताकत लेती है। यही तो इस देश का चमत्कार है जिसकी छाप कहीं न कहीं हिंदुस्तानियत के रंग में रंग कर हर धर्म और मजहब के मानने वाले पर अपना असर छोड़ता है। भारत तो ऐसा प्रिज्म है जिसमें सात रंगों की प्रकाश किरणें एक तरफ सातों रंगों में बिखर कर अपनी छटा बिखेरती हैं और दूसरी तरफ इंद्रधनुष की तरह एकाकार होकर एक किरण में बंध जाती हैं। अत: जो लोग भारत की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक एकता को किसी एक विशिष्ठ मत या रंग में देखने की गफलत करते हैं उन्हें सबसे पहले यह समझना चाहिए कि 1937 में संयुक्त बंगाल में अंग्रेजी शासन के दौरान मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने मिल कर मौलाना फजलुल हक के नेतृत्व में सांझा मोर्चे की सरकार क्यों बनाई थी और इस सरकार में बाद में भारतीय जनसंघ के संस्थापक बने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के कोटे से वित्तमंत्री क्यों बने थे?
कांग्रेस समेत वामपंथियों का तर्क हो सकता है कि यह दो सांप्रदायिक शक्तियों का ऐसा राजनीतिक समागम था जिसमें धर्म के आधार पर सत्ता पर पहुंचा गया था परन्तु इस तर्क को कैसे नकारा जा सकता है कि यह भारत की विविधता को एक साथ बांधे रखने का राजनीतिक प्रयास भी था। जम्मू-कश्मीर में आज जो पीडीपी और भाजपा की सांझा सरकार काबिज है वह भी क्या ऐसा ही प्रयोग नहीं है? विचार-विविधता के एक ही जगह आकर समरस होने का यह भी नमूना ही है। अत: हम किस तरह किसी एक ही विचार और एक ही मत को थोपने की सोच सकते हैं। दरअसल हमारे रक्त में ही विविधता बहती है जो यह कहती है कि धर्म एकता पैदा करने का जरिया है, लड़ने का नहीं। राष्ट्रपति ने महात्मा गांधी की इस उक्ति को दोहरा कर केवल यही कहा है कि भारत सात रंगों से बना ऐसा प्रकाश पुंज है जो पूरी दुनिया को न जाने कब से ज्योतिर्मय कर रहा है। इसीलिए तो हमारे वेदों में कहा गया है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’