-अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।
इस देश ने रक्षा सौदों में बड़े-बड़े घोटाले देखे हैं। देश में सत्ता परिवर्तन होते रहे, प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री बदलते रहे लेकिन एक चीज जो नहीं बदली, वह थी रक्षा सौदों में घोटाले। देश के रक्षा सौदों पर हथियार माफिया का नियंत्रण रहा। देश की थलसेना, वायुसेना और नौसेना के लिए अगर कोई भी सामान खरीदना हो तो उसमें हथियार माफिया का हस्तक्षेप एक ब्रह्मास्त्र रहा। उनके बिना न तो सामान खरीदा जा सकता है और न उसे उपलब्ध कराया जा सकता है। ऐसी धारणा भी काफी पुख्ता है कि अगर दलालों को हटा दिया जाए तो रक्षा मंत्रालय विदेशी बाजार से एक भी हथियार नहीं खरीद सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में हथियार माफिया को अपनी गतिविधियां संचालित करने की पूरी छूट मिली हुई है। इनमें बहुत ही सम्मानजनक और प्रतिष्ठित लोग शामिल रहे। देश के हर राजनीतिक दल और शीर्ष अफसरशाहों के बारे में इन्हें पूरी जानकारी रहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के सामने हथियारों के सौदागरों के दलालों के जाल को नष्ट करने की चुनौती है। हालांकि रक्षा मंत्री ने रक्षा खरीद नीति का ऐलान करने में काफी समय लिया।
अंतत: उन्होंने पणजी में शुरू हुए डिफेंस एक्सपो के अवसर पर नई नीति की घोषणा कर ही दी। नई नीति में दलालों की भूमिका खत्म कर दी गई है। इसमें सेनाओं के लिए साजो-सामान की प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित की गई है। इसमें सरकार के मेक इन इंडिया अभियान पर जोर दिया गया है ताकि आयात पर निर्भरता कम हो। आज भी हम सेना की 70 फीसदी जरूरतों के लिए विदेशों पर निर्भर हैं। इस नई नीति में रक्षा निर्यात मंजूरियां आनलाइन दी जाएंगी। भारत में डिजाइन और विकसित प्रोडक्ट खरीदने पर जोर दिया गया है। नई नीति की प्रस्तावना में सबमरीन, फाइटर्स हैलीकाप्टर और हथियार बनाने के प्रोजैक्ट स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप के जरिए शुरू किए जाने का उल्लेख है। हालांकि इस नीति पर सवाल भी उठ रहे हैं और कहा जा रहा है कि जिस चीज को गेम चेंजर बताया जा रहा था वही इस नीति से गायब है क्योंकि मंत्रालय अभी स्ट्रेटेजिक पार्टनर मॉडल पर अहम सहमति नहीं बना पाया। अभी इस मॉडल के बारे में विस्तृत जानकारी बाद में दी जाएगी। स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप माडल को लेकर इंडस्ट्री, रक्षा मंत्रालय के भीतर भी विरोध हो रहा है। सेना, रक्षा, वित्त और नौसेना ने इस माडल के कई बिंदुओं पर आपत्ति दर्ज कराई है। वित्त मंत्रालय का कहना है कि अगर किसी परियोजना के लिए एक कंपनी को चुना जाता है तो वह खुली स्पर्धा के खिलाफ होगा। इसमें उपकरण की लागत तय करने में दिक्कतें आएंगी। यह सही है कि सेना के लिए साजो-सामान के क्षेत्र में उत्पादन, निर्यात और उसके भारतीयकरण के लिए जोरदार प्रयास करने की जरूरत है।
उम्मीद है कि नई रक्षा खरीद नीति की कमियों को शीघ्र दूर किया जाएगा और देश की सेनाओं के लिए जरूरी साजो-सामान की कमी को पूरा किया जाएगा। कई बार सेना के वरिष्ठ अधिकारी विभिन्न मोर्चों पर साजो-सामान की कमी का ब्यौरा रक्षा मंत्रालय को देते रहे हैं। मनमोहन सिंह के शासनकाल में हर रक्षा सौदे में घोटाले की बू आने के बाद बड़े-बड़े सौदे रद्द कर दिए गए थे। उस समय रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने इसीलिए किसी बड़े सौदे को अंतिम रूप देने में कोई साहस दिखाया ही नहीं। भारतीय सेना अभी भी हथियारों की कमी से जूझ रही है। सेना के पास असाल्ट राइफल, बुलेट प्रूफ जैकेट और रात में मार करने वाली हावित्जर, मिसाइल्स और हैलीकाप्टरों की कमी है। इस वित्त वर्ष में केवल 5800 करोड़ के प्रोजेक्टों को ही मंजूरी मिल पाई है। यद्यपि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस्राइल, रूस और अमरीका से रक्षा सामग्री की खरीद के कई समझौतों को अंतिम रूप दिया है लेकिन इस काम में तेजी बहुत जरूरी है। एक तरफ भारतीय सेना की जरूरतें हैं, दूसरी तरफ हथियार माफिया है और तीसरी तरफ रक्षा खरीद नीति को लेकर दिक्कतें भी हैं। अच्छा होगा कि रक्षा मंत्रालय नीति के बिंदुओं को शीघ्र स्पष्ट करे। भारत की सेनाओं का रणक्षेत्र काफी व्यापक है। आतंकी हमलों की आशंका लगातार बनी हुई है। अगर राष्ट्र चैन की नींद सोता है तो इसका पूरा श्रेय सेना के जवानों को जाता है, उन तमाम बेटों को जाता है जो जल, थल और वायुसेना के महानायक हैं। जो बर्फ में बैठ कर राष्ट्र के मूल्यों की रक्षा करते हैं और तपते रेगिस्तान में भी अपना कर्तव्य निभाते हैं। शास्त्र की रक्षा के लिए शस्त्र जरूरी है। जहां शस्त्र बल नहीं वहां शास्त्र पछताते और रोते हैं। सरकार को चाहिए कि देश को रक्षा सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में तेजी से प्रयास करे।