20 Apr 2024, 15:29:09 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-जावेद अनीस
-समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


भारत में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून लागू है जिसे 1 अप्रैल को 6 साल पूरे हो गए हैं, आरटीई तक पहुचने में हमें  पूरे सौ साल का समय लगा है ,1910 में गोपालकृष्ण गोखले द्वारा सभी बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा के अधिकार की मांग की गयी थी, इसके बाद 1932 वर्धा में हुए शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में महात्मा गांधी ने इस मांग को दोहराया था लेकिन बात बनी नहीं। आजादी के बाद शिक्षा को संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में ही स्थान मिल सका जो कि अनिवार्य नहीं था और यह सरकारों की मंशा पर ही निर्भर था। 2002 में भारत की संसद में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा इसे मूल अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया। इस तरह से शिक्षा को मूल अधिकार का दर्जा मिल सका.1अप्रैल 2010 को शिक्षा का अधिकार कानून 2009 में पूरे देश में लागू हुआ। अब यह एक अधिकार है जिसके तहत राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि उनके राज्य में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों। इस कानून को लागू करने से पहले भी भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर काफी समस्याएं थीं और कानून आने के बाद इसमें कुछ नई दिक्कतें भी जुड़ी हैं, जैसे पर्याप्त और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, शिक्षकों से दूसरे काम कराया जाना, सतत एवं व्यापक मूल्यांकन व्यवस्था को लेकर जटिलताएं, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रूकावट और बच्चों के बीच में पढ़ाई छोड़ने देने की दर अभी की बड़ी चुनौतियां है । आरटीई लागू होने के बाद आज हम लगभग सौ फीसदी नामांकन तक पहुंच गए हैं जो की एक बड़ी उपलब्धि है और अब शहर से लेकर दूर-दराज के गावों में लगभग हर बसाहट या उसके आसपास स्कूल खुल गए हैं। उपलब्धियां होने के बावजूद  हमारी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था लगातार आलोचनाओं से घेरे में रही है. इस दौरान भारत में बुनियादी शिक्षा को लेकर जितनी भी रिपोर्टें आई हैं वे अमूमन नकारात्मक रही हैं।
 
मीडिया में भी इसकी बदहाली की ही खबरें प्रकाशित होती हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसकी वजह क्या है? क्या कानून में कोई कमी रह गई है? या फिर हम इसे ठीक से लागू ही नहीं कर पा रहे हैं ? इस बात की भी गुंजाइश है कि इस कानून के खिलाफ जान-बूझ कर इसे निकम्मा साबित करने के लिए दुष्प्रचार किया जा रहा हो जिससे इसे एक ऐसे निष्क्रिय व अनावश्यक व्यवस्था के रूप स्थापित किया जा सके जिसमें सुधार करना नाममकिन है। निश्चित रूप से इसका कोई एक कारण नहीं हैं और इसके लिए ऊपर गिनाई गई  कोई भी वजह गलत नहीं है। सबसे पहले आलोचनाओं और दुष्प्रचार की बात करते हैं, इसके चलते सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगातार कम हुआ है और छोटे शहरों,कस्बों और गावों तक में बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुले हैं, इनमें से ज्यादातर प्रायवेट स्कूलों की स्थिति सरकारी स्कूलों से भी खराब हैं। शिक्षा के क्षेत्र को  व्यापार को रूप में स्थापित किया जा चुका है जो सफल भी है, इस सफलता का कारण यह है कि प्राइवेट स्कूल जो लोग चला रहे हैं उनमें समाज के सबसे प्रभावशाली वर्ग के लोग शामिल हैं। इधर सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार घट रही हैं जबकि प्राइवेट स्कूलों में इसका उल्टा हो रहा है। बच्चों की प्राथमिक शिक्षा को नजरअंदाज किया जा रहा है, 15 से 18 आयु समूह के बच्चे भी कानून के दायरे से बाहर रखे गए हैं इसी तरह से निजी स्कूलों में  25 फीसदी सीटों पर कमजोर आय वर्ग के बच्चों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है, यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और सरकारी शालाओं में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता है।

जो परिवार थोड़े-बहुत सक्षम हैं वेअपने बच्चों को पहले से ही प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर हैं व भी इस ओर प्रेरित किया जा रहे हैं। कानून को लागू करने में भी भारी कोताही देखने को मिल रही है, बीस प्रतिशत स्कूल तो एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। इसी तरह से स्कूलों को अतिथि शिक्षकों के हवाले कर दिया गया है जो शिक्षक कम और
 
इन सबका असर शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूलों में बच्चों की रूकावट पर देखने को मिल रहा है। बजट को लेकर भी समस्याएं देखने को मिल रही हैं। नवीनतम बजट में, वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा सर्व शिक्षा अभियान के लिए 52 फीसदी राशि आवंटित की गई है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या तो सरकारों के रवैये में है, कानून बन जाने के बाद वे इसे सब्सिडी और योजना के नजरिए से ही देख रही है। जन-भागीदारी और निगरानी की बात करें तो आरटीई के तहत स्कूलों के प्रबंधन में स्थानीय निकायों और स्कूल प्रबंध समितियों को बड़ी भूमिका दी गई है,कानून के अनुसार  एसएमसी स्कूल के विकास के लिए योजनाएं बनाएंगी और सरकार द्वारा दिए गए अनुदान का इस्तेमाल करेंगीं और पूरे स्कूल के वातावरण को नियंत्रित करेंगी लेकिन ऐसा हो नहीं पाया हैं, इसके पीछे कारण यह है कि या तो लोग पर्याप्त जानकारी और प्रशिक्षण के आभाव में निष्क्रिय हैं। हमें यह समझना होगा कि शिक्षा केवल राज्य का ही विषय नहीं है और केवल ठीकरा फोड़ने से मामला और बिगड़ सकता है। स्कूलों को सरकार और समाज मिल कर ही सुधार सकते हैं। सरकारों को भी कोशिश करनी होगी कि स्थानीय स्तर पर समुदाय को लोग और पालक आगे आकर जिम्मेदारियों को उठा सकें।  छह साल बाद यह भी देखना होगा कि शिक्षा का अधिकार कानून अपने ही रास्ते में रोड़ा तो नहीं बन रहा है। 2009 में हम ने जहां से शुरूआत की थी अब उससे पीछे नहीं जा सकते हैं इसलिए अब आवश्यकता केवल आरटीई के प्रभावी क्रियान्वयन की नहीं है बल्कि इसे कानूनी और सामाजिक दोनों रूपों में विस्तार देने की आवश्यकता है।

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