-ऋतुपर्ण दवे
समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।
क्या बंगाल की शेरनी का जादू इस बार भी चल पाएगा या कांग्रेस गठबंधन से अलग होने के चलते तिलिस्म टूट जाएगा? अब कुछ भी हो, पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव काफी रोचक तो होंगे लेकिन हिंसक नहीं होंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं। राजनीति की तासीर की बात करें तो यहां का इतिहास, पारंपरिक रूप से हिंसा भरा ही रहा। सभी 294 विधान सभा सीटों पर 6 चरणों मतदान होंगे। जाहिर है चुनाव आयोग भी पूरी सख्ती से निष्पक्ष चुनाव कराने को कमर कस चुका है। राजनीतिक बिसातें बिछनी लगी हैं और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया है। इस बार कई कारणों से सत्तारूढ़ और तृणमलू कांग्रेस(टीएमसी) की सुप्रीमो, ममता बनर्जी की मुसीबतें खुद ही कम नहीं दिख रहीं। शारदा घोटाले की लपट, सीबीआई की सक्रियता और बेहद अहम समय में बेपर्दा होते स्टिंग ने टीएमसी की चूलों को जरूर कहीं न कहीं हिला कर रख दिया है। बीते लोकसभा चुनावों में यहां भाजपा को 18 प्रतिशत वोट मिले थे और पहली बार वाम से निकल कर तृणमूल के हाथों में आए राज्य में, 4 वर्षों में ही हिंदू विचारधारा वाली किसी नई पार्टी की दस्तक दिखाई दी।
यह न केवल वामपंथियों बल्कि कांग्रेस, टीएमसी व अन्य राजनीतिक दलों के लिए चिंता की बात है। भले ही जनसंघ के संस्थापक डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी यहीं से थे लेकिन पार्टी, जनसंघ से भाजपा बनने तक के सफर में कुछ भी हासिल नहीं कर पाई इसलिए, दोहरी खुशी जैसी बात है। लेकिन यह भी याद रखना होगा, जहां 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी को भारी जीत मिली, वहीं पश्चिम बंगाल में 2015 के स्थानीय चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने न केवल बीजेपी को खाता खोलने से रोक दिया बल्कि कोलकता सहित 24 परगना के औद्योगिक क्षेत्रों में भी जबरदस्त सफलता हासिल कर यह जता दिया है कि ममता की सादगी का जलवा जस का तस है। 92 स्थानीय निकायों में से 70 पर तृणमूल कांग्रेस, स्पष्ट बहुमत मिला। दूसरा यह भी कि भाजपा के पास अभी तक कोई हाईप्रोफाइल नेता नहीं है जिसे बतौर मुख्यमंत्री वह प्रोजेक्ट कर सके। वैसे भी, दिल्ली का दर्द और बिहार के बड़बोलेपन का जख़्म अभी गहरा है। बॉलीवुड गायक बाबुल सुप्रियो ने आसनसोल से चुनाव जीता और भाजपा ने बिना देर किए केंद्र में मंत्री पद पर ताजपोशी कर एक विकल्प देने की कोशिश जरूर की थी परंतु वो ममता के आगे कितना टिक पाएंगे इसका भी पूरा भान है।
शायद इसी कारण भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, जाने-माने और बेहद लोकप्रिय क्रिकेटर सौरव गांगुली पर पश्चिम बंगाल का दांव आजमा सकते हैं। अगर कहीं ऐसा हुआ तो पश्चिम बंगाल का चुनावी परिदृश्य अलग नजर आएगा और टक्कर तृणमूल कांग्रेस, वाम-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के बीच त्रिकोणीय होना तय है। इसमें कोई दो राय नहीं कि 2011 के विधान सभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों से सत्तासीन वाम मोर्चे को उखाड़ फेंका था। लेकिन तुरंत ही तेजी बदले राजनीतिक घटनाक्रम में कांग्रेस ने खुद को गठबंधन से अलग कर लिया और अब ठीक उलट परिदृश्य में कांग्रेस, माकपा के साथ जदयू, राजद एक हो गए और तृणमूल कांग्रेस अलग-थलग पड़ गई। वहीं चुनाव से ठीक पहले सामने आए स्टिंग से भी टीएमसी की छवि खराब हुई है।
शारदा घोटाले में टीएमसी के धुरंधरों के शामिल होने, गिरफ्तारियों से कमजोर ममता के लिए एक राहत की बात यही जरूर हो सकती है कि राज्य में वो मोदी लहर नहीं दिख रही है जो 2014 में लोकसभा के वक्त थी। इसका फायदा किसको होगा यह गुणा-भाग का विषय है। यदि 2011 और 2014 में मिले वोटों की तुलना की जाए तो यह साफ होता है कि बीजेपी को जो भी वोट मिले, कहीं न कहीं वाम दलों में सेंधमारी के थे। एक सच यह भी कि प.बंगाल में वामदल और कांग्रेस पहले आम चुनाव यानी 1952 से एक दूसरे के खिलाफ लड़ते आए हैं अब देखना है कि दोनों का नया एका, आंकड़ों के लिहाज से क्या गुल खिलाता है। यह भी सच है कि टीएमसी में आंतरिक तौर पर सब कुछ ठीक नही चल रहा है। पार्टी के वरिष्ठ नेता,सांसद और पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने यह कहते हुए मुश्किलें बढ़ा दी हैं कि स्टिंग में फंसे सांसदों और विधायकों को तब तक घर पर बैठना चाहिए जब तक उन पर लगे आरोपों से वो पाक साफ नहीं हो जाते। वहीं ममता बनर्जी की हुंकार कि 34 वर्षों में 55हजार राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देने वालों का हिसाब अभी और चुकता करना है।
चूंकि वामपंथी दलों के अलावा अन्य विपक्षी दलों के नेताओं पर हमले बढ़े हैं जिसे टीएमसी के द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन बता कर भी सहानुभूति बटोरी जा रही है। कांग्रेस का आरोप है कि इससे औद्योगिक विकास थम गया है, किसानों और श्रमिक की हालत बदतर हो रही है इसलिए जनहितार्थ उसने वाममोर्चा के स्लोगन तृणमूल हटाओ, बंगाल बचाओ और भाजपा हटाओ देश बचाओ का समर्थन किया है। एक न्यूज पोर्टल के हालिया स्टिंग को लेकर टीएमसी की चिंता बढ़ी है। लेकिन इन सबके बावजूद जहां ममता बनर्जी, सांसद अभिषेक बनर्जी, मुकुल रॉय, सुब्रत बक्शी, सुदीप बनर्जी सहित 31 स्टार प्रचारकों के साथ मैंदान में उतरने की पूरी तैयारी में है वहीं भाजपा अपने स्टार प्रचारकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, उमा भारती, बाबुल सुप्रयो, निर्मला सीतारमण, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया, रघुवर दास, अर्जुन मुंडा सहित 40 स्टार प्रचारकों की ताकत झोंकेगी। कांग्रेस भी पीछे नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, गुलाम नवी आजाद, सलमान खुर्शीद, शकील जयराम रमेश अशोक गहलोत के साथ चुनावी रण में उतरने की तैयार कर चुकी है। अब देखना यही है कि लगभग त्रिकोणीय बनते चुनावी समर में ऊंट किस करवट बैठता है।