-अश्विनी कुमार
लेखक पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक हैं।
राष्ट्रवाद के मुद्दे पर जब किसी प्रकार की बहस छिड़ती है तो ‘भारत राष्ट्र राज्य’ का वह स्वरूप हमारे सामने आ जाता है जिसे हम ‘राज्यों का संघ’ भारत कहते हैं। इस राज्यों के संघ भारत की भौगोलिक सीमाएं निर्धारित करने में भारत के ‘सांस्कृतिक’ आधार की प्रमुख भूमिका रही है। वामपंथी इतिहासकारों की यह स्थापना अंग्रेज इतिहासकारों से उधार ली हुई है कि इस देश को एक राष्ट्र की परिकल्पना में बदलने में मुगल शासकों से लेकर अंग्रेजी साम्राज्यवादी शासन ने महती भूमिका अदा की। दरअसल भारत इसी देश के लोगों के उस धार्मिक तीर्थस्थानों और तीर्थयात्राओं वाली भूमि का घेरा है जहां पूर्व से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के राज्यों के लोग जाते थे। भारत का निर्माण इन्हीं तीर्थस्थानों की विभिन्न क्षेत्रों में मौजूदगी से हुआ है और इसने एक राष्ट्र राज्य का स्वरूप लिया है। आद्य शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार शंकराचार्य पीठों की स्थापना करके इस सांस्कृतिक धागे में पूरे देश को पिरोया ही नहीं बल्कि उत्तर की पीठ में दक्षिण के आचार्य को अवस्थित करके राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया। भारत का निर्माण इस उपमहाद्वीप में फैले तीर्थस्थलों की यात्राओं से नियत होता चला गया और छोटी-छोटी शाही रियासतों और रजवाड़ों के वजूद के बावजूद ‘एकमेव’ भारत का निर्माण हुआ।
भारत में चक्रवर्ती सम्राटों का शासन इसी बहुभाषी व बहुक्षेत्रीय भारत का एकीकरण था। लोकसभा में तृणमूल पार्टी के सांसद प्रोफेसर सौगत बोस ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चली चर्चा में हिस्सा लेते हुए इसी भारत की विविधता के एकात्म स्वरूप का वर्णन अपनी विद्वतापूर्ण शैली में ऐतिहासिक तर्कों के साथ अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया। उन्होंने सिद्ध किया कि चक्रवर्ती सम्राट सभी राज्यों की सांस्कृतिक व राजनीतिक स्वायत्तता को अपनी केंद्रीय सत्ता की वफादारी से बांधते थे। इतना ही नहीं राज्यसभा में मार्क्सवादी पार्टी के युवा सांसद ऋतुपर्णो बनर्जी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखे गए राष्ट्रीय गान के कुल पांच पद्यांशों को सुनाया तो सिद्ध हो गया कि भारत की परिकल्पना इसकी सांस्कृतिक ज्योति का ही प्रकाश है।
अत: राष्ट्रवाद कोई विचारधारा हो या किसी एक विशिष्ट सांचे में ढाल दी जाए, यह संभव नहीं है। वामपंथियों का गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कालजयी रचना में भारत के साकार होने का दर्शन पाना ही स्वयं में राष्ट्रवाद है और भारत की विविधता का एकमेव शक्ति में परिवर्तित होने का परिचायक है। बेशक भारतीय जनता पार्टी अपने जनसंघ के जन्मकाल से ही राष्ट्रवाद की व्याख्याता और प्रवर्तक रही है मगर उसका राष्ट्रवाद किसी धर्म पर आधारित नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारत के लोग बहुधर्मी होने के साथ ही अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों की अनूठी परंपराओं से बंधे हुए हैं। कोई मुझे बताए कि बंगाल या ओडिशा के घने जंगलों में जब कोई शहद या मोम को एकत्र करने वाला मुस्लिम मजदूर या छोटा-मोटा कारोबारी जाता है तो वह जंगल में प्रवेश करने से पहले ‘वनदेवी’ की अभ्यर्थना क्यों करता है? इसमें धर्म कहीं आड़े नहीं आता मगर जब कुछ स्वनामधन्य मुस्लिम नेता ‘भारत माता की जय’ बोलने पर आपत्ति करने लगते हैं तो उन्हें अपनी धार्मिक भावनाएं याद आने लगती हैं। यह पूरी तरह छद्म आचरण है। जब कम्युनिस्ट पार्टी का सांसद संसद में खड़े होकर ‘जन मन गण अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता’ के अनजुड़े पद्यांशों को सुनाता है तो वह स्वीकार कर लेता है कि राष्ट्रवाद निश्चित रूप से राष्ट्र धर्म है। दलितों के मसीहा डा. भीमराव अंबेडकर के बारे में जब हमारे देश का प्रधानमंत्री यह कहता है कि बाबा साहब औद्योगीकरण को दलितों के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए जरूरी शर्त मानते थे तो स्वाभाविक तौर पर यह राष्ट्रवाद की ही बात है क्योंकि सदियों से हाशिए पर पड़े हुए और सामाजिक अत्याचार के शिकार लोग राष्ट्रीय विकास में अपना स्थान चाहते हैं। दलितों की स्थिति तो भारत के प्रत्येक राज्य में विविध सांस्कृतिक रवायतों के बावजूद तिरस्कृत ही रही है।
जब कोई दूसरा देश हमारी सीमाओं पर अतिक्रमण करने की जुर्रत करे तो सबसे पहला काम राष्ट्रधर्म का निर्वाह होता है और वह राष्ट्रधर्म केवल राष्ट्रवाद ही होता है। देश के सबसे बड़े न्यायालय के समक्ष समूचे राष्ट्र राज्य भारत के प्रत्येक राज्य को न्याय देने का दायित्व होता है। उसके लिए प्रत्येक राज्य का नागरिक भारतवासी ही होता है। अत: राष्ट्रवाद की कोई सीमा बांध कर हम भारत की एकात्म शक्ति की विवेचना नहीं कर सकते। पूरे भारत के सभी धर्मों के नागरिकों के लिए एक समान आचार संहिता का गठन भी तो राष्ट्रवाद ही है मगर इसका जिक्र होते ही सभी राजनीतिक दल तलवारें खींच लेते हैं और भारत की बहुधर्मी संस्कृति की दुहाई देने लगते हैं मगर यही बहुधर्मी संस्कृति हमें यह कहां सिखाती है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को एक ही दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए? शासन के लिए न वह हिंदू है न मुसलमान, वह केवल भारतीय है। हमारी वेष-भूषा और खान-पान अलग हो सकता है, हमारी बोली और रहन-सहन अलग हो सकता है मगर हमारा राष्ट्र तो एक है और इसी की एकता तो राष्ट्रवाद है।