19 Apr 2024, 08:06:26 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

- विष्ष्णुगुप्त
समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


झूठ, फरेब, साजिश, मक्कारी, विश्वासघात, आश्वासन भारतीय राजनीति का नंगा सच है। सिर्फ सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी ही नहीं बल्कि विपक्षी पार्टियां भी इन्हीं बुराइयों की सौदागर होती हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष पक्ष यह खेल खुलेआम खेलते हैं और वह भी बेशर्मी के साथ खेलते है, इन्हें कोई चिंता नहीं होती है कि उनके ऐसे खेल से उनकी ही जग-हंसाई होती है, वे ही जनचिंता की परिधि में कैद होते हैं। जैसे-जैसे हमारा लोकतंत्र दीर्घायु होता जा रहा है वैसे-वैसे लोकतांत्रिक राजनीति में झूठ, फरेब, मक्कारी, विश्वासघात और आश्वासन जैसे हथकंडे जनता के लोकतांत्रिक अधिकार और विकास की बुनियादी जरूरतों पर प्रहार कर रहे हैं। सबसे चिंताजनक और उपहासजनक उदाहरण झारखंड राज्य में देखने को मिल रहा है। स्थानीयता के प्रश्न पर सत्ताधारी भाजपा सहित विपक्षी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा और अन्य पाटियां सभी तथ्यागत तौर पर जनता के सामने नंगे हो गए हैं पर ये सभी स्थानीयता के प्रश्न पर एक-दूसरे को घेरने, एक-दूसरे पर कीचड़ उछाड़ने औैर अपना दामन साफ कहने के लिए राजनीतिक बवंडर खड़े कर दिए हैं।

झारखंड की राजनीति में स्थानीयता के प्रश्न पर उठे बवंडर ने जनता के सामने कई प्रश्न खडेÞ कर दिए हैं। इन प्रश्नों में प्रमुख प्रश्न ये है, क्या राजनीतिज्ञों को विपक्ष में रहने के दौरान ही जनचिंता सताती है जब राजनीतिज्ञ सत्ता में होते हैं तब उन्हें जनचिंता होती क्यों नहीं है। स्थानीयता जैसे प्रश्न का हल क्यों नहीं करते हैं, क्या झारखंड निर्माण के लिए बलिदान करने वाले लोगों के सपनों के साथ झारखंड के राजनीतिज्ञ गद्दारी नहीं कर रहे हैं, स्थानीयता के अधूरे प्रश्न से झारखंड के मूल निवासियों का अधिकार और सम्मान का हनन हो रहा है, पर प्रश्न यह है कि कुएं में ही भांग है तो उम्मीद कैसे और किनसे होगी।  झारखंड राज्य निर्माण के कोई एक या दो साल नहीं बल्कि 16 साल हो गए। इन 16 साल में बाबूलाल मंराडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, हेमंत सोरेन, मधु कोड़ा मुख्यमंत्री बने थे, वर्तमान में रघुवर दास मुख्यमंत्री हैं। इन सोलह सालों के दौरान औैर छह-छह मुख्यमंत्रियों के शासनकाल गुजर जाने के बाद भी स्थानीयता का प्रश्न हल नहीं हुआ है।

इसके लिए क्या सिर्फ वर्तमान मुख्यमंत्री रघुवर दास ही दोषी ठहराए जा सकते हैं, क्या झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी दोषी नहीं हैं, क्या झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को स्थानीयता का प्रश्न हल नहीं कर लेना चाहिए था, झारखंड के आंदोलनकारी शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन ने अपने कार्यकाल में ही स्थानीयता का प्रश्न हल क्यों नहीं किया, क्या भाजपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों सरकारों में शामिल सुदेश महतो द्वारा स्थानीयता का प्रश्न हल नहीं करा लेना चाहिए था। अगर इन सभी ने स्थानीयता के प्रश्न हल नहीं किए तो सीधे तौर पर ये सभी दोषी हैं। ये सभी दोषी हैं पर इनकी चोरी और सीनाजोरी वाली कहावत देखिए। बाबूलाल मरांडी ने धमकी दी है कि अगर स्थानीय नीति जल्द नहीं बनाई जाएगी तो वे राज्य में आर्थिक नाकेबंदी करेंगे। हेमंत सोरेन ने धमकी दी है कि स्थानीय नीति नहीं बनेगी तो फिर वे झारखंड निर्माण आंदोलन से भी बड़ा आंदोलन करेंगे।  अब बाबूलाल मंराडी, हेमंत सोरेन और सुदेश महतो से कौन पूछेगा कि आपने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में स्थानीय नीति क्यों नहीं बनाई थी? रघुवर दास अभी मुख्यमंत्री हैं और यह कह रहे हैं कि हम स्थानीय नीति जरूर बनाएंगे पर रघुवर दास स्थानीय नीति बनाएंगे या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता है। पर इतना कहा जा सकता है यही रघुवर दास जब विपक्ष में होंगे और जनता इनको खारिज कर देगी तब रघुवर दास भी बाबूलाल मरांडी, शिबू सोरेन, हेमंत सोरेन और सुदेश महतो की तरह स्थानीय नीति को लेकर आंदोलन और रार खड़ा करेंगे। वास्तव में झारखंड की जनता नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की उपनिवेशिक नीति की शिकार हुई है। उपनिवेशिक नीति के जनक अंग्रेज थे। अंग्रेजों के पतन और आजादी के बाद भी अंग्रेजों की देन उपनिवेशिक नीति और संस्कृति चलती रही और गरीब व हाशिए पर खड़ी जनता उपनिवेशिक नीति व संस्कृति से शिकार होती रही है।

आजादी के बाद झारखंड की जनता बिहारी उपनिवेशवाद की शिकार रही। लंबी लड़ाई और बेहिसाब बलिदान की कहानी के बाद झारखंड राज्य का निर्माण हुआ था। झारखंड राज्य के निर्माण में केवल आदिवासियों की ही अग्रणी भूमिका नहीं थी बल्कि झारखंड के मूल वासी कुर्मी और तेली-सुड़ी की भी अग्रणी भूमिका थी। शिबू सोरेन से बड़ी भूमिका बिनोद बिहारी महतो और निर्मल महतो की थी। झारखंड के निर्माण में जो लोग योद्धा कहते थे उन्हीं लोगों ने बिहारी उपनिवेशवाद के सामने घुटने टेक दिए। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि झारखंड बिहारी उपनिवेशवाद का चारागाह बन गया। बिहारी जनता का झारखंड पर आबादी आक्रमण हुआ, बिहारी अपराधी, बिहारी ठेकेदार और बिहारी व्यापारी झारखंड आकर यहां की ठेकेदारी और सरकारी नौकरियों पर कब्जा जमा लिया। 

झारखंड की आदिवासी भूमि पर अवैध कब्जा और अवैध हस्तांतरण चरम पर है, मूलवासियों की जमीन और उनकी संपत्ति लूटी जा रही है। जितनी भी सरकारी नौकरियों में नियुक्ति हुई हैं उसमें अधिकतर बिहारी लोगों के हाथ में गई हैं। झारखंड बनने के बाद जितनी भी सरकारी नौकरियां सृृजित हुर्इं, उनमें नाममात्र के ही मूल निवासियों को जगह मिली। आदिवासी और दलित को आरक्षण की नीति के तहत नौकरियां तो सुलभ हो रही हैं पर राज्य के मूलवासी पिछड़े और अगड़े खासकर बिहारी उपनिवेशवाद से त्राहिमाम् कर रहे हैं।  स्थानीयता का प्रश्न झारखंड की जनाकांक्षा है। झारखंड की भाजपा सरकार को नई स्थानीय नीति हर हाल में बना लेनी चाहिए। स्थानीय कौन माना जाएगा, इस प्रश्न का सर्वमान्य हल निकालना मुश्किल है। जमीन सर्वे को आधार बनाना चाहिए, प्राइमरी स्कूल सर्टिफिकेट को मान्य कसौटी पर रखना होगा। अगर स्थानीय नीति इतने दिनों बाद भी नहीं बनेगी तो फिर झारखंड की जनता आगे भी बाहरी उपनिवेशवाद का शिकार होकर अस्तित्वविहीन होने की स्थिति में खड़ी हो जाएगी।

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