- आर.के.सिन्हा
- लेखक राज्य सभा सदस्य हैं।
क्षमा कीजिए पर ये कहना पड़ेगा कि हमारे देश का एक खास तथाकथित वुद्धिजीवी वर्ग का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कमियां निकालना ही मानो जीवन का लक्ष्य रह गया है। संघ की देश की शिक्षा व्यवस्था और चिकित्सा सेवाओं को लेकर किस तरह की राय है, इन मसलों पर ये संघ विरोधी बिरादरी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती। इसका ताजा उदाहरण लीजिए। हाल ही में राजस्थान के नागौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की सालाना बैठक संपन्न हुई। बैठक के अंतिम दिन संघ महासचिव भैय्याजी जोशी ने बाकायदा यूनिफॉर्म में बदलाव की घोषणा की। स्वयंसेवक अब नियमित शाखाओं में खाकी निकर के बजाए भूरी या कॉफी रंग की फुलपैंट पहन कर आएंगे।
संघ ने देश के हर नागरिक को सस्ती शिक्षा और सस्ती चिकित्सा सुविधाएं देने के संबंध में भी पारित किए सारगर्भित, सार्थक और सर्वसम्मत प्रस्ताव। लेकिन, इन दोनों अहम बिंदुओं पर किसी भी मीडिया का फोकस नहीं रहा। क्या शिक्षा और चिकित्सा जैसे सवाल अहम नहीं हैं देश के लिए संघ ने केंद्र की मोदी सरकार से आहवान किया कि वह देश में सस्ती शिक्षा और बेहतर और सस्ती चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करवाने की बाबत ठोस पहल करे। सस्ती चिकित्सा सेवाएं बेशक संघ ने सस्ती चिकित्सा सेवाएं देने के संबंध में प्रस्ताव पारित करके एक तरह से साफ किया कि वह देश के आम जन के साथ खड़ी है। निर्विवाद रूप से देश में सस्ती चिकित्सा सेवाओं का अभाव दिख रहा है। आम आदमी को बेहतर हेल्थ सर्विसेज नहीं मिल रही हैं। सारा हेल्थ सेक्टर राम भरोसे चल रहा है। भारत में डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की भारी कमी है। देश में हर साल एक लाख नए डॉक्टरों की जरूरत है, जबकि मिल पा रहे हैं महज 35 हजार। इस कमी को दूर करना होगा। अब देश हेल्थ रिसर्च पर भी फोकस देने की जरूरत है। सबको मालूम है कि हेल्थ रिसर्च बेहद महंगा क्षेत्र है। इसलिए इस पर गौर करने की जरूरत थी। चूंकि हम बेहद कम राशि हेल्थ रिसर्च के लिए रखते हैं, इसीलिए हमारे इधर इस क्षेत्र में कोई बड़ा अनुसंधान नहीं हो पाता। स्वस्थ भारत का निर्माण किए बगैर देश अपने को विकसित होने का दावा नहीं कर सकता। यदि लोग स्वस्थ होंगे तभी देश की तरक्की सुनिश्चित हो सकेगी। बेशक, अभी तक सरकारें स्वास्थ्य क्षेत्र के ऊपर जो बजट खर्च करती आई है वह मांग के अनुसार तो नहीं होता। सरकार को हेल्थ सेक्टर के लिए बजट बढ़ाने की जरूरत है, ताकि सरकारी अस्पताल में मरीजों को हर वो सुविधाएं उपलब्ध हो जो एक निजी अस्पताल में उपलब्ध होती है। क्या ये बात किसी से छिपी हुई है कि हमारे सरकारी अस्पतालों और डिस्पेंसरियों में सुविधाओं का भारी टोटा रहता है ? उनमें डाक्टर से लेकर दवाइयां सही तरह से नहीं मिल पातीं। मरीज सिर्फ राम भरोसे रहते हैं। देश और राज्य की राजधानियों के बड़े नामवर अस्पतालों के बाहर रोगियों से लेकर उनके संबंधी मारे-मारे घूमते हैं ताकि उनका वक्त रहते इलाज हो जाए। आज लोगों को सस्ता हेल्थकेयर नहीं मिल रहा। लोग महंगे इलाज की वजह से जानें गंवा रहे हैं। इसलिए देश के हेल्थकेअर सेक्टर को दोबारा से री-वेंप करने की जरूरत है।
सस्ती किन्तु स्तरीय शिक्षा और अगर बात संघ के सस्ती और स्तरीय शिक्षा प्रदान करने संबंधी प्रस्ताव की करें तो ये मानना पड़ेगा कि अब सामान्य इंसान के लिए अपने बच्चों को स्कूल या कालेज में पढ़ाना कोई आसान नहीं रहा। इनमें दाखिले से लेकर पढ़ाई के दौरान अनाप-शनाप तरीके से खर्चा करना पड़ रहा है। संघ निशिचत रूप से इस स्थिति के कारण चिंतित है। सरकार को सरकारी स्कूलों में बेहतर टीचर और सुविधाएं उपलब्ध तो करवाने होंगे ताकि देश के मजदूर-किसान और शहरी गरीब भी आराम से अपने बच्चों को स्कूल-कालेज भेज सके। मैं कुछ समय पहले एसोचैम की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था। इसमें दावा किया गया कि महंगी होती स्कूली शिक्षा के कारण अब परिवार छोटे होने लगे हैं। खासकर बड़े शहरों में। इसके मुताबिक बीते 10 साल में स्कूल एजुकेशन 150 फीसदी तक मंहगी हुई है। ऐसे में दंपति अब एक से ज्यादा बच्चा नहीं चाहते हैं। पहले बच्चे के जन्म के एक-दो साल बाद स्कूल एजुकेशन की प्लानिंग की जाती थी, लेकिन अब पेरेंट्स जन्म से पहले ही स्कूल फीस का इंतजाम करने लगते हैं। क्योंकि प्ले स्कूलों की फीस ही 35 से 75 हजार रुपए तक पहुंच गई है।
ये सर्वे दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, पुणे, अहमदाबाद, चंडीगढ़, लखनऊ और देहरादून समेत देश के 10 बड़े शहरों में किया गया है। इसमें 1600 दंपतियों से सवाल किए गए। 10 में से नौ लोगों यानी 90 फीसदी ने कहा कि स्कूल की बढ़ती फीस सबसे बड़ी मुश्किल है। 70 फीसदी पेरेंट्स की सैलरी का 30 से 40 फीसदी हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर खर्च होता है। 2005 में एक बच्चे की पढ़ाई पर सालाना खर्च 55 हजार रुपए था। अब यह सवा लाख रुपए तक पहुंचने लगा है। तो जाहिर है कि संघ तेजी से महंगी होती स्कूली शिक्षा को लेकर चिंतित है। संघ सरकार से इस मसले पर ठोस पहले की उम्मीद भी कर रहा है।और मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर भी नागौर में विचार हुआ। संघ के के सर कार्यवाहक भैय्याजी जोशी ने मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा उठाया। संघ ने मंदिरों में प्रवेश में पुरुषों और महिलाओं में भेदभाव करने की मानसिकता की निंदा की। इस बाबत संघ ने सामाजिक समरसता की बात की। कुल मिलाकर आप इस बात को मानेंगे कि संघ के जनधड़कन से जुड़े अहम मसलों पर किए गए फैसलों को लेकर एक तबका पूरी तरह से संवेदनहीन है। उसे तो संघ की किसी मसले पर खिंचाई करने से लेकर बाल की खाल निकालने में ही सुख प्राप्त होता है। क्या ये बीमार मानसिकता नहीं मानी जाए? मीडिया चाहे संघ के रचनात्मक काम को नोटिस ले या न ले बला से। आम जनता तो सब जानती है।