19 Apr 2024, 14:39:40 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक


भारत का लोकतंत्र बेशक शोर-शराबे का लोकतंत्र हो मगर यह हेराफेरी या चोरी-चकारी का लोकतंत्र नहीं है और न ही कभी हो सकता है, क्योंकि इस लोकतंत्र को दिशा देने से जब राजनीतिज्ञ भटक जाते हैं तो स्वयं लोग उठ कर दिशा दे देते हैं और राजनीतिज्ञों को आगाह कर देते हैं कि वे अपनी चाल-ढाल सुधार लें। ऐसा हमने 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रत्यक्ष रूप से देखा। सभी राजनीतिक दल सोच कर बैठे हुए थे कि भारत साझा सरकारों की सौदेबाजी की राह पर 1991 से जो चलना शुरू हुआ था, उसका दौर अभी और आगे चलेगा मगर इस देश के लोगों ने जब इस प्रकार की साझा सरकारों को सत्ता की दुकानदारी में तब्दील होते देखा तो उन्होंने करवट बदल कर एक ही झटके में पुन: एक दल की पूर्ण बहुमत की सरकार को काबिज कराने में देर नहीं लगाई। अत: जो लोग भी इस देश की जनता को मूर्ख या इसके मतदाताओं को अनपढ़ मान कर अपनी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहते हैं उनसे बड़ा अज्ञानी कोई दूसरा नहीं हो सकता।

बेशक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से लोगों में राजनीति में काला-सफेद होने की प्रक्रिया ज्यादा स्पष्ट हुई है और सब कुछ साफ सामने तस्वीरों पर नजर आने लगा है, मगर इन तस्वीरों के पीछे होने वाले खेल से भी इस देश के मतदाता अंजान ही रहें, ऐसा संभव नहीं है। स्टिंग आॅपरेशन के नाम पर टीवी चैनल राजनीति की दुनिया में सनसनी पैदा करने को नया फैशन बना चुके हैं मगर इसका मतलब यदि यह निकाला जाता है कि जनता केवल वही देखेगी जो टीवी दिखाएंगे तो यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा। हमने देखा कि दिल्ली के विधानसभा चुनावों से पहले किस तरह स्टिंग आॅपरेशनों का हमला हुआ। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले भी ऐसे ही स्टिंग आॅपरेशन किए गए, मगर इसका नतीजा क्या निकला? दोनों ही मामलों में जिन राजनीतिक दलों के नेताओं के खिलाफ सनसनी पैदा की गई वही राजनीतिक दल चुनावों में भारी बहुमत से विजयी हो गए। इसका मतलब सीधा-सा यही निकलता है कि मतदाता स्टिंग आॅपरेशनों में दिखाई गई बातों को सच्चाई की तरह लेने को तैयार नहीं है बल्कि इसका उल्टा अर्थ यह निकाला जाने लगा है कि स्टिंग आॅपरेशन हार के डर को छुपाने का एक जरिया बनते जा रहे हैं।

प. बंगाल में  ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के नेताओं के विरुद्ध जो स्टिंग आॅपरेशन एक निजी वेबसाइट ने दिखाया है उसकी कैफियत इतनी ही है कि यह विधानसभा चुनावों से पहले सार्वजनिक किया गया है। 2014 के लोकसभा चुनावों से लेकर पूरे दो साल तक तृणमूल के विभिन्न नेताओं और राज्य सरकार के मंत्रियों का चोरी-छिपे पीछा करके जो फिल्म बनाई गई उसे चुनावों से एक महीने पहले आम जनता के सामने रखा गया। जाहिर है कि इसके पीछे राजनीति को स्वच्छ बनाने की पत्रकारिता की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि किसी एक पार्टी को नुकसान पहुंचाने का उद्देश्य है। इस मोटी-सी बात को मतदाता न पकड़ें यह संभव नहीं है और वह भी प. बंगाल जैसे राज्य के तीव्र-बुद्धि मतदाता। एक प्रकार से देखा जाए तो यह चुनावों से पहले ही हार-जीत का फैसला करने का ऐलान भी है। दूसरा मतलब यह निकलता है कि राज्य में 32 वर्ष तक राज करने वाला वाम मोर्चा और उससे पहले लगभग इतने ही वर्षों तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी एक साथ एक मंच पर आकर भी ममता बनर्जी की ताकत को चुनौती देने में खुद को कमजोर समझ रहे हैं और तीसरी ताकत भाजपा इन दोनों के युद्ध के बीच स्वयं को भाग्यशाली मान रही है लेकिन बंगाल की हकीकत तो इस राज्य के मतदाता ही बयान करेंगे लेकिन यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि स्टिंग आॅपरेशन भी अब चुनावी राजनीति का एक हिस्सा बनते जा रहे हैं। यह प्रवृत्ति हमारे लोकतंत्र के लिए किसी भी रूप में अच्छी नहीं है। यदि सच को बिना किसी राग-द्वेष के लोकहित में प्रकट करने के लिए कोई पत्रकार या टीवी चैनल खोजी पत्रकारिता करता है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसके भी कई उदाहरण हैं। सबसे बड़ा उदाहरण तो बिहार आॅपरेशन गंगाजल है जो कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के शासनकाल में हुआ था। आम लोगों ने तब ऐसी पत्रकारिता को सिर पर बिठाया था मगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के स्टिंग आॅपरेशनों ने तो खोजी पत्रकारिता को मजाक बना कर रख दिया है। बेशक कुछ स्टिंग आॅपरेशन लोकहित में हुए हैं मगर ऐसे स्टिंग आॅपरेशनों का चुनावी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं रहा है।
 

राजनीति में धन के प्रभाव से कौन इंकार कर सकता है। यदि इसका प्रभाव आम जनता को दिखाना है तो इसके लिए स्टिंग आॅपरेशन की क्या जरूरत है। आखिरकार जिन एक दर्जन सांसदों की सदस्यता मनमोहन सरकार के पहले कार्यकाल में धन के बदले प्रश्न के मुद्दे पर गई थी, उसका क्या हश्र निकला? क्या राजनीति का स्तर या सांसदों का स्तर बदला?

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