-ओमप्रकाश मेहता
वरिष्ठ पत्रकार
आज देश में एक अजीब तरह का माहौल है, सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों को ही अपनी ‘टीआरपी’ बढ़ाने की चिंता है, सत्ताधारियों को सत्ता के सिंहासन तक और प्रतिपक्ष को उनकी पुरानी गलतियों को सुधारने का मौका देने वाले एक आम भारतीय वोटर की किसी को भी चिंता नहीं है। ऐसा लगता है अब प्रजातंत्र का सबसे बड़ा मंदिर अब एक अखाड़े में तब्दील हो गया है, जहां सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों के ही नेता एक-दूसरे की निंदा का ‘शब्दकोष’ लेकर बैठे गए है और संसद के समय, पैसा और जनहित की उपेक्षा कर अपना हित साधने में व्यस्त हो गए है, और देश का बुद्धिजीवी असहिष्णुता और राष्ट्रद्रोह जैसे शब्दों का सही और सार्थक अर्थ खोजने में व्यस्त हो गया है और अपनी जातिय समस्याओं से पीड़ित देश की आम जनता अभी से अगले चुनावों के इंतजार में मौन साधकर बैठ गई है।
यह तो हुई प्रजातंत्र के कथित रक्षक और खैरख्वाहों की बात, अब यदि प्रजातंत्र के अन्य स्तंभों की बात करें तो न्यायपालिका जहां वर्तमान व्यवस्था से निराश होकर स्वयं थकी-थकी सी नजर आने लगी है, वहीं कार्यपालिका पक्ष-विपक्ष के ‘टीआरपी’ खेल का मजा लेकर अपना ‘उल्लू सीधा’ करने में व्यस्त है और जहां तक प्रजातंत्र के कथित चौथे स्तंभ खबरपालिका की बात करें तो वह भी अपनी स्वार्थमयी, पूर्वाग्रही और मनगढ़ंत कहानियां गढ़कर इस ‘टीआरपी’ के खेल में अपना योगदान प्रदान कर रहा है। इस प्रजातंत्र के चारों स्तंभों से कोई भी ऐसा स्तंभ नहीं है, जो अपने में चिपकी स्वार्थ और भ्रष्टाचार की दीमक से मुक्ति पाने की जुगत कर रहा हो? देश ने ज्यादा नहीं सिर्फ इक्कीस महीने पहले नए उभरे नेता नरेंद्र मोदी को उनकी उम्मीद से ज्यादा बहुमत देकर सत्ता का सिंहासन सौंपा था, फिर इन इक्कीस महीनों में ही ऐसा क्या हो गया, जिसके कारण आज देश को बर्बादी के इस मोड़ पर खड़ा रहने को मजबूर होना पड़ रहा है, क्या कभी इस छोटी से बात पर देश के प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल ने दो मिनट भी चिंतन किया? देश के सबसे प्रमुख और विवादित राज्य जम्मू-कश्मीर में तीन महीनें से लोकप्रिय सरकार नहीं है, वहां वे जनहित व विकास के काम नहीं हो पा रहें हैं, जिनके बारे में सरकार फैसला लेकर पूरे करवाती है, हमारे सिरमौर राज्य की इस बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन?
क्या एक क्षेत्रीय सियासी दल की जिद पूरे प्रदेश के विकास को अवरूद्ध नहीं कर रही है? आज संसद में उन चार राज्यों के नाम लिए जाते है, जहां खाद्य, सुरक्षा, कानून लागू नहीं है, किंतु सत्तारूढ़ दल से जुड़े और प्रधानमंत्री जी के अपने राज्य सहित अन्य राज्यों के नाम क्यों नहीं गिनाए जाते? मैंने संसद का वो नजारा भी देखा है, जब नेहरू लोहिया गलबहियां डाले संसद द्वार से अपने चेहरों पर मुस्कुराहट लिए निकलते थे, और आज नेहरू जी की ही कुर्सी पर विराजित प्रधानमंत्री उम्र के साथ दिमाग के संतुलन का व्यंग्य करके अपरोक्ष रूप से विपक्ष पर व्यंग्य कर रहें है? देश के उत्तर में सत्तारूढ़ प्रमुख दल व नेता के ये हाल है तो दक्षिण भी कम नहीं है जहां अपनी वोटो की राजनीति के तहत पूर्व प्रधानमंत्री के सात हत्यारों को माफी देने की मांग की जा रही है? आज विदेशी जहां हमारी इस दुरावस्था को देखकर हंस रहे है और एमनेस्टी इन्टरनेशनल जैसी एजेंसी सांप्रदायिक, हिंसक घटनाओं में बढ़ोत्तरी के नाम पर पूरे विश्व में हमारी बेइज्जती कर रही है, और हम हाथ पर हाथ रखे हमारे अच्छे विदेशी संबंधों की माला जप रहें है। इस तरह आज हमारा ही अपना देश हमारे लिए एक अनबूझ पहेली बन कर रह गया है, जिसे जो बूझ सकते है, वे बूझना नहीं चाहते और जिनमें बूझन की ललक है, वे अपने आपको असमर्थ पा रहें है। आखिर होगा क्या हमारे देश, उसके प्रजातंत्र और प्रजातंत्री देश के निवासियों का? आज यही सवाल धीरे-धीरे सुरसा का रूप धारण कर रहा है।