16 Apr 2024, 19:43:48 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-रमेश ठाकुर
आरक्षण देने के मूलमंत्र को अगर समझें तो आरक्षण देना इतना आसान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर साफ व्याख्या दे रही है, लेकिन फिर सियासी लोग आवाम को आरक्षण का झुनझुना दे देते हैं। इस समय जाट आरक्षण को लेकर बवाल उठा हुआ है। जाट समुदाय हमेशा से प्रभावशाली वर्ग रहा है, न कि वंचित! इसलिए इनका सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मांगना पूरी तरह अतार्किक-सा लगता है। आरक्षण के नाम पर पूरे हरियाणा में आगजनी, तोड़फोड़ करना यह सब अनुचित और विशुद्ध रूप से नकारात्मक राजनीतिवश है। यह बात आंदोलनकारी भी जानते हैं कि अभी केंद्र और राज्य सरकारें इस समस्या का कोई तात्कालिक समाधान नहीं निकाल सकतीं। अध्यादेश के जरिए आरक्षण लागू करने की मांग सिर्फ राजनीतिक शिगूफा ही हो सकती है, अदालत में उसका टिकना लगभग असंभव होगा। फिर सवाल उठता है कि इस मौजूदा स्थिति के पीछे कौन है।

क्या वास्तव में केंद्र की मोदी सरकार की छवि खराब करने की साजिश की जा रही है। आरक्षण की आड़ में प्रदेशभर में फैली आग को केंद्र सरकार किसी भी रूप में शांत करना चाहती है। फिलहाल सरकार आंदोलनकारियों की सभी मांगों को मानने को राजी हो रही है, लेकिन आरक्षण देने को लेकर उसकी राह में कानूनी दुश्वारियां बहुत रहेंगी। यूपीए सरकार के वक्त में भी हरियाणा के भीतर आरक्षण की मांग जोरों से उठी थी। यह सच है कि पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाए बगैर आरक्षण देने पर संविधान की मनाही की अनदेखी का ही नतीजा था कि जाटों का आरक्षण सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिक सका। सर्वविदित है कि हरियाणा का जाट समुदाय इतना गया गुजरा नहीं है जिसके लिए आरक्षण की जरूरत पड़े। जाट समुदाय खेतीबाड़ी की कमाई से ही संपन्न माना जाता है, लेकिन अब किसानी के अलावा बड़े-बड़े व्यवसाय भी कर रहे हैं। उनके लोग सरकार के उच्च पदों पर विराजमान हैं।

बच्चे विदेशों में पढ़ाई कर रहे हैं। सवाल यह है कि भारत में रहने वाले अधिकांश समुदायों को आरक्षण की दरकार है। अगर किसी एक मांग पूरी कर दी जाती है। तो आरक्षण मांगने वालों की लहर आ जाएगी। आरक्षण को लेकर इस बार का परिदृश्य पूरी तरह से बदला हुआ है जिस जाति के लिए आरक्षण की मांग की जा रही है वह सोचने पर मजबूर कर रही है। आरक्षण को लेकर दशकों पहले लिखे गए संविधान में साफ लिखा है कि आरक्षण सिर्फ असहाय व निर्धनों के उद्धार के लिए दिया जाना चाहिए, लेकिन अब आरक्षण को लेकर परिभाषा पूरी तरह बदल गई है। आरक्षण के नाम पर सभी सियासी दल जमकर राजनीति करते हैं। मजे की बात यह कि जब राजनीतिक दल सत्ता में होते हैं, तब आरक्षण नहीं देने की बात करते हैं, लेकिन जब विपक्ष में होते हैं तो वकालत करते हैं। जाटों के साथ भी हरियाणा में यही हो रहा है। दो साल पहले जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो उन्होंने आम चुनावों को देखते हुए आरक्षण का पासा फेंका था।
 

कुछ महीनों के बाद कांग्रेस का सफाया हुआ फिर केंद्र में भाजपा की सरकार आ गई। इसलिए अब जाट समुदाय उनसे आरक्षण की मांग कर रहा है। सवाल इस बात का भी है कि हमारे सियासतदां जातिवाद को खत्म करने की दिशा में पहल क्यों नहीं करते? समान शिक्षा और समान अवसरों की बात क्यों नहीं करते। अगर जाति है तो आरक्षण की मांग इसी तरह उठती रहेंगी। आरक्षण का जमीनी सच तो यह है कि यह अपने मकसद से भटक चुका है। जाट हमेशा से राजनीतिक, सामाजिक व शैक्षिक नजरिए से उच्च व धनी रहे हैं।  इस आंदोलन की जो लोग अगुआई कर रहे हैं। वह अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं। जातियों के लिए आरक्षण को लेकर देश कई सालों से भ्रमित है। किसी आरक्षण पर सरकार अगर गौर कर भी लेती है तो तुरंत दूसरे समुदाय के लोग आरक्षण के लिए खड़े हो जाते हैं। जाट आरक्षण, गुर्जर आरक्षण, क्षत्रिय आरक्षण आदि समुदायों के लिए आरक्षणों की आवाजें पिछले कुछ सालों से जोर पकड़ रही हैं।

सवाल इस बात का है कि हरियाणा में जाट समुदाय की आरक्षण की मांग कितनी जायज है? इस बात का सामाजिक और आर्थिक जांच जरूरी है। जाट आरक्षण अंगे्रजी शासन की याद दिला रहा है। ब्रिटिश नीति ‘फूट डालो, राज करो’ का ही आज मौजूदा समय में अनुसरण किया जा रहा है। दुख इस बात का है कि सात दशक की आजादी के बाद भी हम जाति और धर्म की सियासत से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। देखा जाए तो अब आरक्षण की मांग की आड़ में वोट की सियासत नेतागीरी का शार्टकट बन गया है। जमीनी स्तर पर जाति का सच कुछ और ही है। जाति और आरक्षण के नाम पर भोले-भाले लोगों को गुमराह कर लोग अपनी सियासी ताकत का जलवा दिखाकर सत्ता सुख के उपक्रम में लगे हुए हैं।

ग्रामीण भारत में आज भी वंचित और शोषित समुदायों के साथ शोषण होता है। साथ में यह भी सच है कि पिछड़ों के आरक्षण के नाम पर ऐसी जातियां आरक्षण का लाभ ले रही हैं जो सामाजिक और आर्थिक हैसियत से सामान्य जातियों के ही समकक्ष हैं।
संविधान के मुताबिक, सकारात्मक नीति के तहत संरक्षण उन्हीं नागरिकों को मिलना चाहिए जो इसके लायक हों। सिर्फ अवधारणा के आधार पर किसी को (अनुच्छेद 15(4) व 16 (4) के तहत) अगड़ा-पिछड़ा नहीं घोषित किया जा सकता। सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग के कराए जाने वाले ताजा सर्वेक्षण का इंतजार किए बगैर आगामी चुनाव के मद्देनजर इस मुद्दे पर यह फैसला लिया था। वैसे आरक्षण की पहली शर्त है कि लाभ पाने वाला समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हो। उसके पिछड़ेपन के आंकड़े भी होने चाहिए। नहीं तो संविधान में दिए गए बराबरी के अधिकार को झुठलाना मुश्किल होगा।

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