26 Apr 2024, 01:13:29 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-सुधांशु द्विवेदी
एक संसदीय समिति द्वारा सांसदों के वेतन और भत्ते दोगुना करने के प्रस्ताव को शीघ्र लागू करने की सिफारिश की गई है। संसदीय समिति द्वारा की गई इस पैरवी के संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा कैसा रुख अपनाया जाता है या क्या निर्णय लिया जाता है यह सरकार की नैतिक प्रतिबद्धता और विवेक पर निर्भर करेगा लेकिन यहां सोचनीय विषय यह है कि संसदीय समिति अगर सांसदों के वेतन-भत्ते को लेकर इतनी चिंतित है तो फिर सांसदों द्वारा अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में इतनी कोताही क्यों बरती जाती है। पिछले कई वर्षों से ऐसा देखा जा रहा है कि सांसदों द्वारा संसद सत्र के दौरान लोकसभा व राज्यसभा में सिर्फ हंगामे और नारेबाजी में अपना अधिकांश समय गंवा दिया जाता है तथा संसद सत्र का मूल्यवान समय इस तरह से अराजगता की भेंट चढ़ जाता है बल्कि कई बार संसद में गंभीर विवाद का नजारा भी देखने को मिलता है।
 

पिछले वर्ष ही संसद सत्र के दौरान आंध्रपदेश का प्रतिनिधित्व करने वाले एक सांसद ने सदन में सांसदों पर मिर्च पाउडर छिड़क दिया था, जो देशभर में आलोचना का विषय बन गया था। साथ ही प्राय: देखने में आता है कि कई सांसदों की संसद सत्र के दौरान उपस्थिति नगण्य रहती है। लोकसभा व राज्यसभा के सांसद निर्वाचित होने के बाद उनकी संसदीय कार्यवाही में शामिल होने में कोई रुचि नहीं रहती। जबकि सांसदों से यह उम्मीद की जाती है कि वह संसद सत्र के दौरान अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराकर लोक महत्व के मुद्दों पर सार्थक चर्चा व बहस के माध्यम से अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करें तथा जनता की उम्मीदों पर भी खरा उतरने का प्रयास करें। सांसदों द्वारा सांसद मद के लिए मिलने वाली धनराशि को जनहितैषी कार्यों में खर्च करने में भी घोर लापरवाही बरती जाती है।

सिर्फ इतना ही नहीं सांसदों द्वारा संसदीय प्रक्रिया को समझने में भी लापरवाही बरती जाती है जिसका नतीजा यह रहता है कि कई सांसद संसदीय ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं जिसका असर संसद के अंदर उनकी भूमिका पर भी पड़ता है। जबकि सांसदों से यह उम्मीद की जाती है कि वह देश के इस श्रेष्ठ निकाय का सदस्य होने के नाते अपनी उत्कृष्ट कार्यप्रणाली व उच्च आचरण के माध्यम से मिसाल प्रस्तुत करें ताकि भारत की संसद व सांसदों की साख विश्वभर में बढ़े तथा देश के नवागत सांसद व भविष्य में निर्वाचित होने वाले जनप्रतिनिधि उनसे प्रेरणा हासिल कर सकें। प्राय: देखने में आता है कि पेशेवर मानसिकता के लोग भी अपने धनबल के प्रभाव से लोकसभा या राज्यसभा सांसद बनने में सफल हो जाते हैं तथा बाद में वह जनहित व राष्ट्रहित को नजरअंदाज करके सिर्फ स्वहितों पर ही ध्यान देते हैं।

ऐसे में जरूरी हो गया है कि सांसदों, विधायकों व अन्य जनप्रतिनिधियों के लिए चुनावी आचार संहिता की तर्ज पर ही एक विशेष आचार संहिता निर्धारित की जाए, जिसका वह स्वस्फूर्त ढंग से पालन करें। सांसदों या संसदीय समिति द्वारा सिर्फ वेतन-भत्ते व सुख सुविधाओं की ही चिंता नहीं की जानी चाहिए बल्कि नैतिक कर्तव्यों पर भी ध्यान देना जरूरी है। यह बात सार्वजनिक पदों पर आसीन अन्य लोगों पर भी लागू होती है। चाहे वह कितने भी महत्वपूर्ण पद पर आसीन क्यों न हों। अगर वह अपनी जिम्मेदारियों- कर्तव्यों के प्रति संवेदनशीलता न दिखाकर सिर्फ स्वहितों पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे तो यह ठीक नहीं माना जाएगा। अभी हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के विधायकों के वेतन में भारी भरकम वृद्धि की है।

केजरीवाल का उक्त निर्णय जनादेश के दुरुपयोग का जीता-जागता उदाहरण है। यह वही केजरीवाल हैं जो विधानसभा चुनाव जीतने से पूर्व तक गली-गली में घूम-घूमकर फिजूलखर्ची से दूर रहने, जनता-जनार्दन के हितों के प्रति पूरी तरह समर्पित रहने, राजनीतिक जीवन में अनावश्यक सुख-सुविधाओं से परहेज करने तथा शुचितापूर्ण राजनीतिक कार्य संस्कृति की स्थापना की कसमें खाया करते थे। लेकिन अब दिल्लीवासियों के लिए बोझ की तर्ज पर विधायकों के वेतन में भारी भरकम इजाफा कर दिया। केंद्र सरकार को चाहिए कि जिस तरह से सांसदों का वेतन बढ़ाने के लिए संसदीय समिति गठित की गई है उसी प्रकार सांसदों की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए भी एक समिति गठित की जाए तथा यह समिति संसद सत्र के दौरान व बाद में सांसदों के कामकाज पर नजर रखा करे। बाद में इस समिति की सिफारिश  के आधार पर ही संबंधित सांसद के वेतन-भत्ते में कटौती तथा संसद का सदस्य बने रहने की योग्यता भी निर्धारित की जाए। भारतीय लोकतंत्र का यह विडंबनापूर्ण पक्ष है कि यहां सार्वजनिक जीवन में जिस तरह उच्छृंखलता , अराजकता व स्वार्थपूर्ति का प्रचलन बढ़ रहा है उससे विश्वभर में देश की छवि खराब हो रही है। ऐसे में अब कुछ क्रांतिकारी पहल तो करनी ही होगी।

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