26 Apr 2024, 03:11:54 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-जावेद अनीस
कहने को तो हम अपने आपको अभी तक के मानव इतिहास का सबसे सभ्य और विकसित समाज मानते है लेकिन दुनिया के एक बड़े हिस्से में  हम अक्सर  मानवता को शर्मशार कर देने वाली ऐसी छवियां देखते हैं जिस्में बच्चे अपने मासूम हाथों में बंदूक, मशीनगन,बम  जैसे विनाशक हथियारों को उठाए हुए बड़ो कि लड़ाईयों को अंजाम दे रहे हैं। विश्व के कई देशों में चल रहे आंतरिक उग्रवाद, हिंसक आंदोलनो व आतंकवाद गतिविधियों  में बड़े पैमाने पर बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है इनमें से ज्यादातर को जबरदस्ती लड़ाई में झोंका जाता है। बड़ों द्वारा रचे गए इस खूनी खेल में बच्चों को एक मोहरे के तौर पर शामिल किया जाता है जिससे इस तरह के संगठन अपनी कारनामों को आसानी से अंजाम दे सकें। दूसरा मकसद शायद आने वाली पीढ़ी को अपने लक्ष्य के लिए तैयार करना भी होता है। 

दुनिया के जिन राष्ट्रों में यह काम प्रमुखता से हो रहा है उसमें उनमें, आफगानिस्तान, सीरिया, अंगोला,लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, इराक, इजराइल,फिलीस्तीन, सोमलिया, सूडान, रंवाडा, इंडोनेशिया, म्यामांर, भारत, नेपाल, श्रीलंका, लाइबेरिया, थाईलैंड और फिलीपिंस जैसे देश शामिल हैं। सशस्त्र संघर्षों में इस्तेमाल किए जा रहे बच्चों का जीवन बहुत ही खतरनाक और कठिन परिस्थितियों में बीतता है, यहां वे लगातार हिंसा के के साए में रहते हैं और  उन्हें हर समय गोली या बम के शिकार होने का खतरा बना रहता है । उनका जीवन बहुत कम होता है और वे छोटी उम्र में ही कई तरह की शारीरिक व मानसिक बीमारियों का के भेंट चढ़ जाते हैं। उनका लगातार यौन शोषण होता है और कई बच्चे एच.आई.वी. एड्स का शिकार भी हो जाते हैं । यह सब कुछ दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों को दिए गए अधिकार के हनन की पराकाष्ठा है।
 

ऐसा नहीं है दुनिया ने इसपर ध्यान ना दिया हो 12 फरवरी 2002 को संयुक्त राष्ट्र बाल-अधिकार कन्वेंशन में एक अतिरिक्त प्रोटोकोल जोड़ा गया था, जो सशस्त्र संघर्षों में नाबालिग बच्चों के सैनिकों के तौर पर उपयोग पर प्रतिबंध लगाता है, इसके बावजूद अभी भी नाबालिग बच्चों का सशस्त्र संघर्षों में भर्ती जारी है, बच्चों के सैनिक उपयोग की निंदा और इसके अंत के लिए हर साल 12 फरवरी को पूरी दुनिया में  में ‘रेड हैंड डे’  नाम से एक विशेष दिन मनाया जाता है। इस आयोजन का मकसद मकसद  दुनियाभर में कहीं भी हो रहे  बच्चों को सशस्त्र संघर्ष में शामिल करने का विरोध जताना है। यह एक ऐसा चलन है जो बच्चों के साथ सबसे  क्रूरतम व्यवहार करता है, इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के कई देश अपनी राष्ट्रीय सेनाओं में भी बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं।  ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2010 में रिपोर्ट जारी की थी जिसके अनुसार म्यंमार की सरकारी सेना और सरकार विरोधी संगठनों के हथियारबंद दस्तों में 77 हजार बाल सैनिक काम कर रहे थे।
 

श्रीलंका के तमिल टाइगर्स पर भी इस तरह के आरोप थे, तालिबान पर भी यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने अपने कथित जिहाद में बच्चों का इस्तेमाल करता रहा है, और इसकी शुरूआत सोवियत-अफगान लड़ाई से हो गई थी । वर्तमान में अतिवादी संगठन बोको हराम और आईएस जैसे संगठन बच्चों का अपहरण करने उनकी हत्या करने ,स्कूलों और अस्पतालों पर हमले करने के के साथ-साथ उनका अपने आतंकवादी गतिविधियों में उपयोग को लेकर कुख्यात है। भारत के संदर्भ में बात करें तो संयुक्त राष्ट्र भारत में माओवादियों द्वारा बच्चों की भर्ती करने और मानव ढाल के तौर पर उनका इस्तेमाल करने को लेकर चिंता जाहिर कर चूका है।

यूनिसेफ के अनुसार  2015 में एक करोड़ साठ लाख से अधिक बच्चे युद्ध क्षेत्रों में पैदा हुए हैं और दुनियाभर में पैदा होने वाले हर आठ बच्चों में से एक बच्चा ऐसे क्षेत्रों में पैदा हो रहा है जहां हालात सामान्य नहीं हैं।  युद्ध और हथियारबंद संघर्ष वाले स्थानों पर बच्चे सबसे ज्यादा विपरीत परस्थितियों में रहने को मजबूर होते हैं। ऐसे इलाकों में सशस्त्र गुट बच्चों को लड़ाई के तरीके सिखाकर उन्हें अपने  संघर्ष में शामिल करते हैं । अगर हम बच्चों की सुरक्षा को लेकर गंभीर हैं तो हर साल  बच्चों को लड़ाकों के तौर पर इस्तेमाल करने का विरोध करने के साथ ही  दुनिया के सभी देशों को एकजुट होकर बच्चों को लड़ाई में झोंकने से  रोकने के लिए ठोस कदम भी उठाने होंगें। बच्चों को इस क्रूर दुनिया से बाहर निकालने के लिए जवाबदेही तय करना इसके लिए पहला कदम हो सकता है।

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