23 Apr 2024, 21:29:34 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-परिचय दास
अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध लोकतंत्र का प्रमुख आधार है, अभिव्यक्ति को मान देना। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक सभ्यतामूलक विमर्श है। प्रतिरोध व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संसार लोकतंत्रीय है, जिसमें बहुसांस्कृतिकता की ध्वनियां हैं तथा आत्मा की स्वाधीनता के बगैर जीवन का वास्तविक स्पेस संभव नहीं। भौतिक तौर पर कोई पराधीन भी हो परंतु आत्मिक आजादी ही मनुष्यता एवं नागरिकता का हेतु है। हमारी पूरी सभ्यता व प्रगति हमारी अभिव्यक्ति की स्वाधीनता पर निर्भर है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ बहुवचनात्मकता है, जिस में अनेक धाराओं का सम्मान व उनकी बराबरी का सम्मान है। आज अभिव्यक्ति की पराधीनता के रूप बदल गए हैं। वे बड़ी ही बारीकी में रहते हैं। भाषा, संस्कृति, सूचना, रक्षा-संबंध, वित्त आदि अनेक रूपों में वे आ सकते हैं। राजनीतिक पराधीनता तो उसका उपांग है ही। संस्कृतियों व उपसंस्कृतियों में अंतर हो सकता है।

संस्कृतियों का आपसी समभाव ही जीवन व नागरिकता की असल सर्जनात्मकता है। संस्कृतियों व समुदायों के बीच सहअस्तित्व ही दुनिया की स्वाधीनता के प्रति विश्वास दिला सकता है। अपनी संस्कृति से प्यार करना दूसरे की संस्कृति से नफरत करने का तर्क नहीं। क्या संस्कृति बाधा है या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक रूप? यह आप के परिप्रेक्ष्य पर निर्भर करता है। यदि हम इसे संकुचित रूप में लें तो यह बंधन बन सकती है। जैसे परंपरा को सही रूप में न लें तो वह बंधन बन जाती है। यदि इसे व्यापक रूप दें तथा सबके सम्मान व बराबरी के प्रश्न को प्रमुखता से रखें तो वह स्वाधीनता का आधार बन जाती है। अभिव्यक्ति का होने देना अपने आप में स्वाधीनता है! इस में कोई शक नहीं कि पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे हैं तथा अराजक तत्त्व संस्कृति के शुभ पक्ष को चुनौती देते रहते हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्थगित करने का कोई तर्क नहीं किन्तु यह मुफ्त में नहीं मिल सकती। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। यह कीमत है- निरंतर जागृत बने रहना। कभी विचारों, कभी जीवन जीने की प्रणाली, कभी असहमति को चंगुल में रखने की कोशिश होती है। कभी किताबें जलाई जाती हैं, कभी सांस्कृतिक प्रतीकों पर हमला होता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समझदारी का विषय है। इसमें व्यक्तिगत व सामाजिक स्वतंत्रता दोनों शामिल हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता को सामाजिक स्वतंत्रता के अधीन करने से कई बार वैयक्तिक सृजनशीलता का अंत हो जाता है। दोनों बनी रहनी चाहिए। वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए सामाजिक स्वतंत्रता का वातावरण रहना उचित होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का ही दूसरा रूप है। इसे किसी संविधान में यंत्रवत नहीं बांधा जा सकता। इसको अनुभव का विषय भी बनाया जाना चाहिए। यह लोक का यथार्थ है। यह लोक का स्वप्न भी है।

अधिनायकवाद के विरुद्ध संघर्षशील प्रेस का होना जरूरी है। वैचारिक स्वतंत्रता तो चाहिए ही।  अनेक पार्टियां  अपनी ही धारा को उचित मानती हैं तथा अन्यों की धारा से बिदकती रहती हैं। उन्हें दूसरों के सच को भी मान देना चाहिए तथा जहां तक स्वीकार्यता हो, स्वीकार भी करना चाहिए। इसी में से स्वतंत्रता के यथार्थ व स्वप्न दोनों आएंगे। यह एक तरह से स्वतंत्रा का अन्वेषण है। विपथन को सकारात्मक दिशा में ले जाना स्वतंत्र कर्म है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मात्र राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए। आज स्वतंत्रता के आयाम बदल गये हैं। विश्व में चल रहे परिवर्तनों के साथ समुदायों के भीतर उपभेदों, परस्पर विरोधी हितों, इच्छाओं, तनावों, मूल्यों, सांस्कृतिक पक्षों तथा व्यक्तिगत समंजन तक स्वतंत्रता को लक्षित किया जा रहा है। जब भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक संस्थाओं के विविध प्रश्न खड़े होंगे, संस्कृति उसके बीचों बीच होगी। साम्यवाद व पूंजीवाद दोनों यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध खड़े होंगे या आपातकाल लगाए जाएंगे तो उसके विरुद्ध संघर्ष होंगे, होते रहेंगे। अब सचेतन समाजों को दबाया जाना संभव न होगा। विविध माध्यमों से प्रतिरोध होंगे।

सूचनाओं के अंबार में किसी किस्म की तानाशाही को छुपाया जाना संभव न होगा। लोग यह देख ही लेंगे कि सूचनाएं किन माध्यमों से आ रही हैं तथा उनके निहितार्थ व उपपाठ क्या हैं। उनमें से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप ले लिए जाएंगे। लोकतंत्र का निषेध कर अपनी अमानवीय व अनागरिक किस्म की मनमानी कर पाना संभव नहीं। विविध सांस्कृतिक माध्यमों, जैसे- भाषा, भूषा, सोच, कला व कानून आदि के रूप में थोपी गयी पराधीनता भी अब स्वीकार्य न होगी। वास्तविक लोकतांत्रिक संस्कृति व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विविध विचारों की सहनशीलता, संचार की स्वतंत्रता व अभिव्यक्ति के प्रसार आदि में निहित है।

किसी समूह, भाषा, सांस्कृतिक पक्ष की आवाज न दबाई जाए, यह महत्त्वपूर्ण है। किसी देश में नस्लवाद न आए, यह देखा जाना चाहिए। कट्टरताएं बढ़ रही हैं। उन्हें रोका जाना चाहिए। उदारवाद व समंजनशीलता को बढ़ाने के प्रयत्न तेज होने चाहिए। किसी व्यक्ति, समुदाय या समाज के सपनों का विरोध अभिव्यक्ति की पराधीनता को ही पुष्ट करना है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं- सहिष्णुता, सजग बौद्धिकता, राजनीतिक उदारता , वैयक्तिकता का सहज सम्मान, धार्मिंक समंजन, सांस्कृतिक समशीलता, वैज्ञानिक दृष्टि आदि। किसी भी रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सम्मान दिया जाना चाहिए तथा उस हेतु उत्सर्ग तक के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। हमें बहु सांस्कृतिक नागरिकता में प्रवेश कर समता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सदा सचेत रहना चाहिए।

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