19 Apr 2024, 07:56:40 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल
कैसी हृदय विदारक घटना है? माता-पिता ने पहले अपनी ढाई वर्षीय पुत्री को अपने हाथों से मृत्यु दी और फिर स्वयं मर गए। यह समाज का कैसा पक्ष अस्तित्व में आ रहा है? यह इकलौती घटना नहीं है और अब अपवाद भी नहीं। हम चाहें भी तो इन नकरात्मक समाचारों से बच नहीं सकते। निरंतर आतीं इन घटनाओं ने विचलित कर दिया हैं। कहीं कोई महिला घरेलू प्रताड़ना से दुखी होती है तो अपने मासूम बच्चों को मार कर स्वयं भी मर जाती है। कहीं कोई सारे परिवार को ही मृत्यु को गले लगा लेता है। उन बच्चों की दुख भरी पुकार को कौन सुनेगा जिन्हें स्वयं माता-पिता अपने हाथों से मार रहे हैं। उन्हें जैसे भी मारा जा रहा है पर उनकी उम्र तो खेलने-खाने की है मृत्यु वरण की तो नहीं है। माता-पिता उन्हें जन्म देकर उन्हीं को मृत्यु भी दे रहे हैं। समाज में परिस्थितियां इतनी विकट क्यों हो गई हैं कि रोज का जीना इतना कठिन हो गया है कि अंतत: स्थितियों से हार कर मौत के रास्ते पर चल पड़े हैं।

क्या इसके पीछे संयुक्त परिवारों का टूटना और उनका बिखरना है? क्या इस पूरे परिवार के पीछे जीवन स्तर बनाने या उसे तथाकथित ऊँचा रखने का संघर्ष है? क्या महत्वाकांक्षाएं इतनी बढ़ गई हैं कि उनको पूरा करने के लिए जो व्यवस्थाएं की जाती हैं और उनके लिए कर्ज तक भी ले लिया जाता है अंत में मृग मरीचकाएं साबित होती हैं। जब यह पूरी नहीं हो पातीं तब इनसे छूटने और मुक्त होने का रास्ता केवल मौत को गले लगाना ही होता है या फिर यह भी तो हो सकता है कि सुख-सुविधाओं को जुटाने की (जैसे महंगा मोबाइल, दीवार पर लगा बड़ा सा लंबा टीवी, फ्रिज, लैपटॉप और भी न जाने क्या-क्या को पाने) पुरजोर कोशिश में अतत: पराजय का सामना करना पड़ता है और तब एक ही रास्ता बचता है कि या तो फंदे में लटक जाएं या फिर जहर खा लें और अपने साथ उन मासूम जानों की भी जान ले लें जिन्होंने अभी दुनिया में आगमन ही किया है, समस्या बहुत गंभीर है।

इसका समाधान संयुक्त परिवारों का एकजुटता और मुसीबत में एक-दूसरे से सहयोग और सहायता करने के द्वारा ही संभव है पर आजकल सोच यह है कि और मानसिकता यह बनती जा रही है कि अकेले रहना है और अपना स्वतंत्र जीवन जीना है। संयुक्त परिवार की अपनी कुछ शर्तें हंै पर उन्हें स्वीकार करना या अपनी अहंवादी सोच को दरकिनार करना कतई मंजूर नहीं है इसलिए ही परिवार बनाकर जब कोई समस्या व मुसीबत आती है तो उससे जूझने की न तो शक्ति होती है और न ही कूबत। इधर-उधर नजर डालने पर कोई ऐसी पुख्ता दीवार नहीं दिखती कि जिसका टेका लिया जा सके क्योंकि उस दीवार के आसरे को वह पहले ही छोड़ चुके होते हैं।
 

इन जड़ों की और लौट कर आना ही उन मासूमों को जिंदगी असमय मरना पड़ता है। किसी संयुक्त परिवार में रहने वाला कितनी भी मुसीबत में क्यों न आ जाए पर अपने बच्चों को मारने की सोच नहीं सकता। दूसरी बात कि उस अंधी दौड़ से बाहर आना होगा जो ऊपर से ऐसी दिखती है कि वह जीवन स्तर को ऊँचा उठाने और लक्जरी की वस्तुओं को जमा कर आनंद व सुख देने का स्त्रोत है। संपन्न और धनाट्य बनने की इस रेस को रोकना होगा। जिनके लिए संपन्न होने की कोशिश करते हैं। बच्चों की पुकार सुनें। वह आपसे संपन्नता नहीं बल्कि अपना जीवन मांग रहे हैं।

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