24 Apr 2024, 18:14:43 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-आर.के.सिन्हा
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी ‘मनरेगा’  पर जरा मोदी सरकार के रुख पर गौर कीजिए। उसने इसके दस साल पूरे होने पर इसकी प्रशंसा की। इसे यूपीए सरकार के दौर में लाया गया था। इससे देश के करोड़ों सुदूर इलाकों में रहने वाले लोगों को अपने घरों के आसपास कामकाज मिलने लगा। उनकी जेब में कुछ पैसा पहुंचने लगा। नतीजा ये हुआ कि वे रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन से बचने लगे। मोदी सरकार का मनरेगा की दिल खोलकर प्रशंसा  करना  देश की जम्हूरियहत के लिए एक शुभ संकेत है। यानी आप विरोधी का सिर्फ विरोध ही नहीं करेंगे। अफसोस कि हमारे देश में आमतौर पर पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं-परियोजनाओं की कमी निकालने की परम्परा सी बन गई है।  लोकसभा में पिछले साल 27 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, मनरेगा आपसी विफलताओं का जीता जागता स्मारक है।
 

आजादी के 60 साल बाद आपको लोगों को गड्डे खोदने के लिए भेजना पड़ा। ये मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा। लेकिन अब  महात्मा गांधी मनरेगा योजना को लेकर सरकार की सोच में बदलाव दिख रहा है। बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि भले ही योजना की मूल भावना सही थी पर इसे लागू करने के स्तर पर यूपीए पूरी तरह निकम्मी साबित हुई थी। मनरेगा सरकारी कर्मचारियों के लिए सरकारी धन के खुलेआम लूट का एक जरिया बनकर रह गई थी।  केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद इसे लागू करने के स्तर पर गंभीरता दिखाई गई। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए चौदह करोड़ गरीबों का बैंक एकाउंट खोले गए और पैसे सीधे उनके खाते में जाने लगे। इसलिए नतीजे सबके सामने हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक हालिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2015-16 में मनरेगा दोबारा पटरी पर लौटा है।

पिछली दो तिमाही में औसतन जितना रोजगार मिला, उतना पिछले पांच साल में नहीं हुआ था। ये आंकड़े ऐसे वक्त पर जारी किए गए हैं, जब मनरेगा को लेकर सरकार की मंशा को लेकर विरोधी पार्टियां समय-समय पर सवाल उठाती रही हैं।  आपको याद होगा कि यूपीए के दौर में मनरेगा के क्रियान्वयन में खामियों को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने उजागर किया था। मनरेगा के तहत ऐसे-ऐसे कामों के लिए भुगतान किया गया  जो इस योजना के दायरे में ही नहीं आते थे और ऐसे कामों के लिए स्वीकृति भी नहीं ली गई थी। न तो सरकारी फंड का सही तरीके से इस्तेमाल किया गया और न ही ढंग से निगरानी की गई थी। यही नहीं गरीबी वाले राज्यों को कम रकम दी गई। जिनकी मांग कम थी, उन्हें अधिक धन दिया गया और इन राज्यों में फंड का बहुत कम हिस्सा इस्तेमाल हुआ। 4.5 लाख जॉब कार्डों में फोटो तक नहीं लगाए गए थे। क्योंकि उनमें अधिकतर जाली थे। यानी घोटाला करने के सभी छिद्र खुले रखे गए। 

कैग की रिपोर्ट यूपीए सरकार के लिए सिरदर्द साबित होनी चाहिए थी, परंतु ये नहीं हुआ। यूपीए सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने तो यहां तक दलील दी है कि आप  कीचड़ देखते ही क्यों हैं, आप कमल को देखिये। क्या उनकी इस राय से कोई सहमत हो सकता है? उन्होंने तो मनरेगा को लागू करने के स्तर पर होने वाले तमाम आरोपों और  खामियों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी थी। यह सही सोच नहीं थी। इसे केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर लागू करना है। यूपीए के दौर में इस योजना के क्रियान्वयन और इसकी कार्य पद्धति पर सुप्रीम  कोर्ट ने भी गंभीर तेवर दिखाए थे। उसने इस योजना पर कड़ी निगाह रखने के लिए नोडल एजेंसी बनाने की आवश्यकता पर बल दिया था। सैंटर फार इन्वायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी द्वारा दाखिल एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट  ने ऐसा निर्णय दिया था।
 

केंद्र में एनडीए सरकार के आने के बाद मनरेगा योजना को अब राज्य सरकारों के साथ मिलकर बेहतर तरीके से लागू किया जा रहा है। पहले मेरे पास  तमाम जगहों से इसके खराब तरीके से लागू करने के संबंध में  शिकायतें आती थीं।   यूपीए के दौर में इसके बावजूद राजनीतिक पक्षपात और भ्रष्टाचार ने मनरेगा के तहत कई राज्यों के गरीबों की आशाओं पर कुठाराघात किया था। उस दौर में मनरेगा की सबसे बड़ी खामी यह सामने आई थी कि ग्रामीण स्तर पर जॉब कार्ड बनाने का काम ग्राम प्रधानों और ग्राम पंचायत अधिकारियों के हवाले कर दिया गया था और इन लोगों ने अपने चहेतों को ही जाब कार्ड बांटे।

इसमें घूसखोरी भी जमकर चली। ये ऐसे जाब कार्ड धारक थे जो कागजों में दर्ज थे और जब बैंकों से मजदूरी निकालनी होती थी,  उस दिन बैंकों में ग्राम प्रधान ग्राम विकास अधिकारियों के साथ आ जाते थे और निकाली गई मजदूरी को तीनों मिल-बांटकर खा लेते थे। इसके चलते हालत यह होने लगी थी कि मनरेगा में जो लोग लगे हुए थे, वे श्रम से भागने लगे। जब बिना श्रम किए उन्हें मजदूरी चाहे आधी ही भले क्यों न हो मिल तो रही थी और, गरीबी सीमा से नीचे रहने से उन्हें सस्ती दरों पर गेहूं, चावल मिल रहा था तो मजदूरों की कार्यक्षमता तो प्रभावित होगी ही।  राहुल के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने मनरेगा की दसवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जैसे मनरेगा पर उन्हीं का एकाधिकार हो। कांग्रेस के नेता अभिषेक मनु सिंघवी कह रहे हैं, कि एनडीए सरकार को मनरेगा का महत्व काफी देर से समझ में आया है। अब उन्हें ये कौन समझाए कि उनकी यूपीए सरकार के दौर में मनरेगा को लागू करने के स्तर पर हुई गड़बडियों का नोटिस तो कैग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने भी लिया था। लेकिन, उन्हें तो गरीब-गुरबा जनता से जुड़े राष्ट्र महत्व के मसलों पर भी राजनीति करनी है।

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